मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

बी एच यू की यह गहन है अंध कारा

लेकिन छात्राओं की एकजुटता और विरोध ने बी.एच.यू परिसर को जकड़े सामंती-पितृसत्तात्मक वर्चस्व को खुली चुनौती दी है 

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) एक बार फिर गलत कारणों से सुर्ख़ियों में है. ऐसे समय में जब दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ देश भर में खासकर जे.एन.यू और दिल्ली विश्वविदयालय जैसे परिसरों में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी, बराबरी और अधिकारों के मुद्दों पर युवा और छात्र-छात्राएं सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन कर रहे हैं, उस समय बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उसका विरोध करने पर उन्हें खुलेआम डराने-धमकाने की शर्मसार करनेवाली खबर का आना इस विश्वविद्यालय के मेरे जैसे लाखों पूर्व और मौजूदा छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के लिए गहरे क्षोभ और चिंता की बात है.
लेकिन उससे अधिक निराश और परेशान करनेवाली खबर यह है कि छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उन्हें डराने-धमकाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन उनके आगे लाचार दिखाई दे रहे हैं.

आरोप है कि आरोपी छात्रों का संबंध समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन- समाजवादी छात्र सभा से है और उन्हें अखिलेश यादव सरकार के एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री का आशीर्वाद हासिल है. आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन अपराधियों को संरक्षण और इस मामले की लीपापोती करने में जुटे हैं.

लेकिन अच्छी खबर यह है कि लंबे समय बाद पहली बार विश्वविद्यालय की छात्राएं परिसर के अंदर छेड़खानी और दुर्व्यवहार के खिलाफ न सिर्फ एकजुट होकर सड़कों पर उतरीं बल्कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्राओं और महिला शिक्षकों-कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए महिला सेल और २४ घंटे की हेल्पलाइन गठित करने पर मजबूर किया है.
ताजा घटना में सबसे अधिक उत्साहित और आश्वस्त करनेवाली बात यही है. असल में, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के छेड़खानी और दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं है लेकिन छात्राओं ने इसबार इसे चुपचाप बर्दाश्त करने के बजाय जिस तरह से एकजुट होकर इसका विरोध किया है और सड़कों पर उतरकर अपना गुस्सा जाहिर किया है, वह नई परिघटना है.
निश्चय ही, छात्राओं के इस साहस और उनकी एकजुटता के पीछे देश भर में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है. इससे इस ऐतिहासिक परिसर में स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित एक लोकतांत्रिक संस्कृति के विकास में रोड़ा बनी सामंती-पितृसत्तात्मक जकड़नों के टूटने की उम्मीद बढ़ी है.

दरअसल, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ हुई दुर्व्यवहार की घटना का गहरा संबंध इस और उत्तर और पूर्वी भारत के अधिकांश परिसरों में जड़ जमाये सामंती-पितृसत्तात्मक ढाँचे और संस्कृति से है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति में स्त्रियों की जगह हमेशा से दोयम दर्जे की और घर की चाहरदीवारी के अंदर रही है.

आश्चर्य नहीं कि ज्ञान के इन ‘आधुनिक’ परिसरों में भी छात्राओं को सुरक्षा के नामपर न सिर्फ महिला महाविद्यालयों और छात्रावासों की चाहरदीवारी (घेट्टो) में बंद रखा जाता रहा है बल्कि उन्हें अनेकों घोषित-अघोषित पाबंदियों का सामना करना पड़ता रहा है. यही नहीं, इन परिसरों में प्रभावशाली उच्च जातियों के जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंगों-अपराधियों का बोलबाला रहा है.
इन जातिवादी गिरोहों को न सिर्फ अध्यापकों के एक हिस्से का बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन का भी समर्थन और संरक्षण मिलता रहा है. नतीजा यह कि इन जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंग-अपराधियों ने न सिर्फ छात्र राजनीति और छात्रसंघों पर कब्ज़ा कर रखा है बल्कि अध्यापक और कर्मचारी संघों पर भी उनका दबदबा रहा है.
यहाँ तक कि इन परिसरों में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश कुलपतियों की नियुक्ति में भी इन जातिवादी-सामंती लाबियों की सक्रिय और सीधी भूमिका होती है. बी.एच.यू परिसर भी इसका अपवाद नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद पिछले एक दशक से ज्यादा समय से परिसर में पूर्वांचल की एक प्रभावशाली जाति के कुलपति ही नियुक्त हो रहे हैं. इस तरह परिसर में इन सामंती-जातिवादी गिरोहों का दबदबा बना हुआ है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार करनेवाले लम्पटों का संबंध भी इन गिरोहों से है.

असल में, ये सामंती-जातिवादी गिरोह परिसर में अपना दबदबा और आतंक बनाए रखने के लिए न सिर्फ छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार करते हैं बल्कि आम छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ भी आए दिन मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करते रहते हैं. इनके निशाने पर खासकर छात्राएं, दलित-पिछड़े और दूसरे प्रान्तों से आए छात्र रहते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ महीने पहले परिसर में अध्यापकों के साथ मारपीट और आगजनी करनेवालों में भी यही लम्पट-अपराधी शामिल थे. लेकिन परिसर में छात्र राजनीति खासकर वाम छात्र संगठनों की गतिविधियों को सख्ती से कुचलनेवाला विश्वविद्यालय प्रशासन इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई से बचता रहा है.
इसके कारण यह परिसर आतंक और डर का एक ‘गहन अंध कारा’ बनकर रह गया है. स्वाभाविक तौर पर परिसर में हाल के वर्षों में छात्राओं की संख्या बढ़ने के बावजूद उन्हें वह आज़ादी हासिल नहीं है कि वे परिसर में अकेले बेख़ौफ़ घूम सकें, लाइब्रेरी या क्लास या कैफेटेरिया या खेल के मैदान या पार्क में आ-जा सकें और परिसर की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा ले सकें.

यही कारण है कि आमतौर पर छात्राएं समूह में निकलती हैं, हमेशा डरी-सहमी रहती हैं, शाम ढलने से पहले छात्रावासों में बंद हो जाती हैं और विश्वविद्यालय की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा नहीं ले पाती हैं. 

लेकिन इस परिसर में छात्राओं की एकजुटता और विरोध से एक नई उम्मीद पैदा हुई है. इससे सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति का किला दरकने लगा है. अच्छी खबर यह भी है कि इसे अध्यापकों, शहर के बुद्धिजीवियों-लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का समर्थन भी मिलने लगा है.
मुझे उम्मीद है कि मेरे इस प्रिय विश्वविद्यालय को आक्टोपस की तरह जकड़े सामंती-अपराधी गिरोहों से वहां के आम विद्यार्थी खासकर बहादुर छात्राएं मुक्त कराएंगी.
आमीन.
('इंडिया टुडे' के 13 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण)                                

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