रविवार, फ़रवरी 24, 2013

बजट'१३ : महंगाई और रोजगार का मुद्दा एजेंडे से गायब है

अर्थव्यवस्था का संकट निवेश की कमी से गहरा रहा है लेकिन चिदंबरम वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं

दूसरी क़िस्त    

इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. खुद भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यकीय संगठन (सी.एस.ओ) के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है जो पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.

इस कारण वित्त मंत्री पर एक ऐसा बजट पेश करने का दबाव है जो अर्थव्यवस्था की मद्धिम पड़ती रफ़्तार को फिर से तेज कर सके. इसके लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े. इस मुद्दे पर व्यापक सहमति है कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से बाहर निकालने के लिए निवेश बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

लेकिन निवेश बढ़ाने की रणनीति को लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. खुद वित्त मंत्री और उनके आर्थिक मैनेजरों समेत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का मानना है कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को निवेश के अनुकूल माहौल बनाने और निजी निवेश की राह में आनेवाली बाधाओं को हटाने पर जोर देना चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र पर छोड़ देना चाहिए.

इस नव उदारवादी रणनीति के तहत ही पी. चिदंबरम अगले बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने, ब्याज दरों में कमी करने के लिए रिजर्व बैंक को मनाने और देशी-विदेशी निजी निवेशकों और कार्पोरेट्स को निवेश के लिए प्रेरित करने हेतु और अधिक रियायतें देने की तैयारी कर रहे हैं.

लेकिन इस रणनीति की सफलता को लेकर अर्थशास्त्रियों में गहरे मतभेद हैं. अर्थशास्त्रियों के एक हिस्से का मानना है कि राजकोषीय घाटे में कटौती के ‘आब्सेशन’ और वित्तीय कठमुल्लावाद से अर्थव्यवस्था का संकट और गहरा सकता है.
इसके लिए वे यूरोप का उदाहरण देते हैं जहाँ राजकोषीय घाटे में कटौती के नामपर अपनाई गई किफायतशारी (आस्ट्रीटी) की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस गई है. असल में, जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही हो और मांग में गिरावट और आर्थिक अनिश्चितताओं के कारण निजी निवेश ठहर गया हो, उस समय अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए ‘उत्प्रेरक’ (स्टिमुलस) की जरूरत होती है.
कीन्सवादी अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, ऐसे समय में सरकार को कुछ समय के लिए राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़कर अर्थव्यवस्था में उत्पादक सार्वजनिक निवेश खासकर सामाजिक और भौतिक ढांचागत क्षेत्र में बढ़ाना चाहिए. सार्वजनिक निवेश बढ़ने से न सिर्फ रोजगार के नए अवसर बढ़ेंगे बल्कि उससे विभिन्न वस्तुओं और उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश आगे आएगा.

लेकिन अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी के संकट से उबारने के लिए चार साल पहले ही स्टिमुलस पैकेज दिया जा चुका है और उसके कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए अब राजकोषीय स्थिति को सुदृढ़ करने की सख्त जरूरत है.

उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने वर्ष २००७-०८ में अमेरिकी आर्थिक संकट के बाद पैदा हुई वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने कोई दो लाख करोड़ रूपये के स्टिमुलस पैकेज का एलान किया था. लेकिन इस स्टिमुलस पैकेज में करो में छूट और कारपोरेट क्षेत्र को दी गई रियायतें ज्यादा थीं और सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के लिए कोई खास कोशिश नहीं की गई.
इसका नतीजा यह हुआ कि इस पैकेज के कारण कारपोरेट क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाए रखने में कामयाब रहा लेकिन उसने वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर निवेश बढ़ाने में रूचि नहीं दिखाई. दूसरी ओर, स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे में तेजी से वृद्धि हुई.
इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे में भले वृद्धि हुई हो लेकिन उससे अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी की मार से उबरने में मदद मिली. आश्चर्य नहीं कि जी.डी.पी वृद्धि की रफ़्तार वैश्विक आर्थिक संकट के कारण वर्ष २००७-०८ के ९.३ फीसदी की तुलना में २००८-०९ में गिरकर ६.७ फीसदी रह गई थी, वह २००९-१० और १०-११ में बढ़कर क्रमश: ८.६ और ९.३ फीसदी तक पहुँच गई.

लेकिन उसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बढ़ते राजकोषीय घाटे की दुहाई देकर स्टिमुलस उपायों को वापस लेना शुरू कर दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर एक बार फिर लुढककर ६.२ फीसदी रह गई जिसके चालू वित्तीय वर्ष में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रह जाने का अनुमान है.

साफ़ है कि किफायतशारी की नीति काम नहीं कर रही हैं. उसका असर उल्टा हो रहा है. ऐसे में, यह सवाल बहुत मौजूं हो जाता है कि क्या वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के उन्हीं नीतियों पर और जोर देने से स्थिति और नहीं बिगड़ जाएगी?
लेकिन चिदंबरम के रवैये से लगता नहीं है कि वे इस नीति पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हैं. जाहिर है कि वे एक बड़ा जोखिम ले रहे हैं. वे सार्वजनिक निवेश के बजाय निजी देशी-विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी पर दांव लगा रहे हैं. इसके लिए वे उसकी हर मांग पूरी कर रहे हैं. राजकोषीय घाटे में कमी के लिए आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के साथ-साथ वे अर्थव्यवस्था के बचे क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल रहे हैं.
लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि क्या बड़ी देशी-विदेशी निजी पूंजी और कार्पोरेट्स अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की पहल करेंगे? हालाँकि चिदंबरम का जादू चला या नहीं, यह जानने के लिए अगले कुछ महीनों का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन इतना तय है कि वे एक बड़ा जुआ खेल रहे हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत भारी भी पड़ सकता है.

यही नहीं, अगर वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने में कामयाब भी होते हैं तो यह सवाल बना रहेगा कि यह किस कीमत पर हुआ और कितना स्थाई है? आखिर आमलोगों पर इतना बोझ डालकर और उनकी बुनियादी जरूरतों की अनदेखी करके और दूसरी ओर, बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को इतनी रियायतें देकर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने की इस रणनीति से किसे लाभ हो रहा है?

यही नहीं, इस रणनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के नामपर यह कार्पोरेट्स और आवारा विदेशी पूंजी को अधिक से अधिक रियायतें देने और उसकी सभी जायज-नाजायज मांगों को स्वीकार करती जा रही है.
एक अर्थ में यह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के ब्लैकमेल के आगे घुटने टेकने की तरह है. लेकिन अर्थव्यवस्था की कमान बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हाथों में सौंपने के बाद वित्त मंत्री के पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है.
काबू से बाहर महंगाई और आम आदमी की उम्मीदें

लेकिन सवाल यह भी है कि इस बजट में महंगाई से निपटने के लिए क्या होगा? दूसरे, इस चुनावी वर्ष में बजट से आम आदमी को क्या मिलनेवाला है? तीसरे, खाद्य सुरक्षा जैसे पिछले चुनावी वायदों का क्या होगा? क्या ये चिंताएं भी वित्त मंत्री की प्राथमिकता सूची में कहीं हैं?
निश्चय ही, वित्त मंत्री महंगाई को लेकर इनसे चिंतित हैं. लेकिन उनका मानना है कि महंगाई पर अंकुश के लिए भी राजकोषीय घाटे पर काबू पाना जरूरी है. इसलिए बजट में महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए अलग से कोई पहल और उपाय करने के बजाय वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके जरिये मांग और कीमतों पर दबाव कम करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन इससे महंगाई खासकर खाद्य महंगाई में कमी आने की उम्मीद बहुत कम है जोकि अभी भी दोहरे अंकों में चल रही है. इसी तरह बजट में आम आदमी खासकर गरीबों को कुछ नहीं मिलने जा रहा है. उल्टे गरीबी उन्मूलन की कई योजनाओं में काट-छांट और उनके बजट में कटौती की आशंका है.

अलबत्ता यह संभव है कि चिदंबरम आम आदमी के नामपर मध्यवर्ग को करों में रियायत देकर कांग्रेस की ओर आकर्षित करने की कोशिश करें. इससे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को भी शिकायत नहीं होगी क्योंकि मध्य वर्ग के हाथ में अधिक पैसा आने का सबसे अधिक फायदा उसे ही होता है. मध्य वर्ग आमतौर पर उस अतिरिक्त आय को उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करता है जिससे इन उत्पादों की मांग बढ़ती है.

लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि वित्त मंत्री इस बजट में खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर क्या प्रावधान करेंगे? कांग्रेस अगले आम चुनावों में इस योजना को भुनाना चाहती है. इस बात के पूरे आसार हैं कि वित्त मंत्री न चाहते हुए भी इस योजना के लिए बजटीय प्रावधान करेंगे.

लेकिन राजकोषीय घाटे को काबू में करने की उनकी प्राथमिकता के मद्देनजर यह संभव है कि वे इस योजना पर ईमानदारी से अमल के लिए जरूरी बजटीय प्रावधान के बजाय प्रतीकात्मक प्रावधान करें लेकिन बजट भाषण में बड़े-बड़े दावे करें.

यही नहीं, चुनावी वर्ष का बजट होने के नाते इसमें लच्छेदार बातें खूब होंगी, आम आदमी की खूब कसमें खाई जायेंगी, किसानों की दुहाई दी जाएगी लेकिन बजटीय प्रावधानों में वित्तीय कठमुल्लावाद की ही चलेगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में कवर स्टोरी) 

बजट'१३ : क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के लिए होगा बजट

चिदंबरम का सारा जोर विदेशी आवारा पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स को खुश करने और आमलोगों पर बोझ डालने पर है

पहली क़िस्त   

यू.पी.ए-२ सरकार का आखिरी और इस सरकार में अपना पहला बजट पेश करने जा रहे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम पर उम्मीदों और अपेक्षाओं का भारी बोझ है. वैसे तो हर वित्त मंत्री पर उम्मीदों और अपेक्षाओं का बोझ होता है और पी. चिदंबरम को इसका खासा अनुभव भी है.
लेकिन पहले संयुक्त मोर्चा सरकार और बाद में यू.पी.ए-१ सरकार में कोई आधा दर्जन बार बजट पेश कर चुके चिदंबरम के लिए इस बार इन उम्मीदों और अपेक्षाओं का बोझ कुछ ज्यादा ही भारी साबित हो रहा है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था की बदतर होती स्थिति के बीच यू.पी.ए खासकर कांग्रेस उनसे एक संकटमोचक बजट की उम्मीद कर रही है ताकि २०१४ के आम चुनावों में उसकी नैय्या पार लग सके.
दूसरी ओर, खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के लिए उनकी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के चैम्पियन की छवि और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को उनसे काफी उम्मीदें हैं और खुद वित्त मंत्री भी लगातार उन्हें भरोसा दिला रहे हैं कि बजट में उनकी अपेक्षाओं का पूरा ख्याल रखा जाएगा.

लेकिन चिदंबरम पर सबसे ज्यादा दबाव स्टैण्डर्ड एंड पुअर, मूडी, फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का है जिनकी निगाहें इस बजट पर लगी हुई हैं. इन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की मांग है कि वित्त मंत्री अपने वायदे के मुताबिक बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने की ठोस और विश्वसनीय योजना पेश करें. ऐसा न होने पर वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिराकर ‘कबाड़’ (जंक) स्थिति में डाल देंगी.

खुद वित्त मंत्रालय से आ रहे संकेतों से साफ़ है कि पी. चिदंबरम का सबसे अधिक जोर क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और उनके जरिये विदेशी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने और उनका भरोसा जीतने पर है. इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं.
आश्चर्य नहीं कि वित्त मंत्री ने बजट की तैयारियों की व्यस्तता के बावजूद पिछले महीने वैश्विक आवारा पूंजी के सबसे बड़े केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन, फ्रैंकफर्ट में रोड शो के जरिये बड़े विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) और कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि वे चुनावी साल के दबावों के बावजूद एक ‘जिम्मेदार बजट’ पेश करेंगे.
लेकिन असली सवाल यह है कि यह बजट किसके प्रति ‘जिम्मेदार’ होगा? वित्त मंत्री के बतौर पद संभालने के बाद से पी. चिदंबरम के बयानों और फैसलों से साफ़ है कि वित्त मंत्री ने अपनी प्राथमिकता तय कर ली है. इसके मुताबिक यह बजट वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और बड़े विदेशी निवेशकों/कार्पोरेट्स/शेयर बाजार के प्रति जिम्मेदार होगा.

इस कारण यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि बजट में सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को कम करने पर होगा. इसका अर्थ यह हुआ कि इस बजट के केन्द्र में चुनाव से ज्यादा राजकोषीय घाटे यानी आमलोगों खासकर गरीबों को पांच साल में एक बार मिलनेवाली राहत से ज्यादा बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों का ख्याल रखा जाएगा.

राजकोषीय घाटा: हौव्वा या वास्तविक खतरा?
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने यह सार्वजनिक तौर पर घोषित कर रखा है कि आनेवाले बजट में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखा जाएगा. यही नहीं, वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे को कम करने की अपनी इसी प्रतिबद्धता को साबित करने के लिए चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी की सीमा में रखने के लिए पिछले छह महीने में पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी में कटौती से लेकर मंत्रालयों के बजट में १० फीसदी से अधिक की कटौती की है.

इसके तहत पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, उर्वरकों की कीमतों से लेकर बिजली और रेल किरायों में बढ़ोत्तरी की गई है जिसका सबसे अधिक बोझ मध्य वर्ग से लेकर गरीबों पर पड़ा है.

सवाल यह है कि वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे को लेकर इतना परेशान, चिंतित और बेचैन क्यों हैं और वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां और आवारा पूंजी राजकोषीय घाटे को कम करने और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव क्यों बनाए हुए हैं?
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में राजकोषीय घाटा कुफ्र या ईशनिंदा की तरह है. इसके पैरोकारों का मानना है कि राजकोषीय घाटा यानी सरकार की आय और खर्चों के बीच अंतर को पूरा करने के लिए सरकार बाजार से कर्ज लेती है जिसके कारण न सिर्फ ब्याज दरों पर दबाव बढ़ता है बल्कि निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए कर्ज लेना मुश्किल होने लगता है.
उनका दावा है कि इससे अर्थव्यवस्था में नया कारपोरेट निवेश कम होता है जिससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर गिरने लगती है. इसके अलावा, राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए गए कर्ज की ब्याज अदायगी में भी काफी रकम जाया होती है और धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था एक कर्ज जाल में फंसने लगती है जहाँ कर्ज चुकाने के लिए कर्ज लेने की नौबत आ जाती है.

राजकोषीय घाटे पर अंकुश के पैरोकारों का यह भी तर्क है कि यह सरकारों की फिजूलखर्ची का नतीजा है जिसके कारण न सिर्फ मुद्रास्फीति बढ़ती है बल्कि अर्थव्यवस्था में कई विसंगतियाँ पैदा हो जाती है. लेकिन इन सभी तर्कों के पीछे मूल तर्क यह है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए क्योंकि सरकार की तुलना में निजी क्षेत्र ज्यादा कुशल, सक्षम और जिम्मेदार है.

इसमें कोई शक नहीं है कि एक सीमा से ज्यादा राजकोषीय घाटे से अर्थव्यवस्था में कई समस्याएं पैदा होती हैं. लेकिन यह भी तथ्य है कि दुनिया की तमाम विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सीमा से ज्यादा राजकोषीय घाटा आम परिघटना है क्योंकि समग्र विकास के लिए निजी के साथ सार्वजनिक निवेश भी बहुत महत्वपूर्ण है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन अर्थव्यवस्थाओं में सरकार को न सिर्फ आमलोगों की बुनियादी जरूरतें और शिक्षा-स्वास्थ्य मुहैया कराने के लिए निवेश करना पड़ता है बल्कि निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सड़क-बिजली-रेल-बंदरगाह जैसे ढांचागत इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी निवेश जरूरी है.
साफ़ है कि राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था के लिए हमेशा नुकसानदेह नहीं है, खासकर अगर वह उत्पादक और सामाजिक रूप से जरूरी क्षेत्रों में निवेश के रूप में हो. यही नहीं, राजकोषीय घाटा खासकर विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि के लिए भी जरूरी है क्योंकि सार्वजनिक निवेश से निजी निवेश को भी गति मिलती है.
लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार इसका इसलिए विरोध करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि अर्थव्यवस्था में राज्य यानी सरकार की सीमित और निजी पूंजी की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए. वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश के जरिये अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को सीमित करने की कोशिश करते हैं.

साथ ही, वे मानते हैं कि किसी को भी कोई चीज मुफ्त नहीं मिलनी चाहिए (देयर इज नो फ्री लंच) क्योंकि इससे संसाधनों की बर्बादी होती है. इस आधार पर वे सब्सिडी का विरोध करते हैं.

राजकोषीय घाटे पर अंकुश के और भी हैं विकल्प
लेकिन राजकोषीय घाटे के खिलाफ अभियान चलानेवाले उसके मूल कारण की चर्चा नहीं करते हैं. असल में, राजकोषीय घाटा सिर्फ खर्चों में बढ़ोत्तरी के कारण ही नहीं बल्कि आय में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण भी बढ़ता है.

तथ्य यह है कि भारत में राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी की बड़ी वजह सरकार की आय कम होना है. उल्लेखनीय है कि भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात वर्ष २०१०-११ में मात्र १०.१ फीसदी था जोकि वर्ष २००७-०८ के ११.९ फीसदी से भी कम रह गया है. प्रत्यक्ष करों (आयकर और कारपोरेट करों)-जी.डी.पी का अनुपात तो और भी कम ७.६ फीसदी के आसपास है.

इसके उलट दुनिया के अधिकांश विकसित और प्रमुख विकासशील देशों में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात २० से २५ फीसदी के बीच है. भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात कम होने की कई वजहों में से एक वजह अमीरों और कार्पोरेट्स को करों में मिलनेवाली भारी छूट और रियायतें भी जिम्मेदार हैं.
चौंकानेवाली बात यह है कि भारत में अमीरों और कार्पोरेट्स को हर साल ५.१५ लाख करोड़ रूपये से ज्यादा की टैक्स रियायतें दी जाती हैं. अगर इन रियायतों को खत्म कर दिया जाए तो राजकोषीय घाटा पूरी तरह से खत्म हो जाएगा. इसी तरह अगर टैक्स-जी.डी.पी अनुपात को १० फीसदी से बढ़ाकर १५-१६ फीसदी तक ले आया जाए तो राजकोषीय घाटा पूरी तरह से समाप्त हो सकता है.
लेकिन वित्त मंत्री और आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस विकल्प के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि वे अमीरों और कार्पोरेट्स को नाराज नहीं करना चाहते हैं. हालाँकि ऐसी चर्चाएं है कि बजट में सुपर अमीरों पर १० प्रतिशत का मामूली सरचार्ज और विरासत और सम्पदा टैक्स (वेल्थ और इन्हेरिटेंस टैक्स) लगाया जा सकता है लेकिन चिदंबरम के ‘ड्रीम बजट’ के अतीत को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं.

ऐसे में, वे राजकोषीय घाटे में कमी का सारा बोझ आमलोगों पर डालने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसी रिपोर्टें हैं कि चिदंबरम सरकारी खर्चों खासकर योजना बजट में १० फीसदी की कटौती करके उसे मौजूदा वर्ष के स्तर पर रखने में जुटे हुए हैं.

इसी तरह सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार खत्म करने और उन्हें प्रभावी बनाने के नामपर विभिन्न योजनाओं के पुनर्गठन और विलय के जरिये उनकी संख्या कम करने की भी तैयारी है.

इस कारण माना जा रहा है कि पिछले एक दशक में यह सबसे अधिक किफायती बजट होगा. साफ़ है कि राजकोषीय घाटे का हौव्वा दिखाकर कार्पोरेट्स को सौगात और आमलोगों पर बोझ डालने की जानी-पहचानी नीति इस बजट में भी जारी रह सकती है.
इससे चिदंबरम को उम्मीद है कि वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी, कार्पोरेट्स और उनकी पैरोकार वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का भरोसा जीतने में कामयाब होंगे. इससे अर्थव्यवस्था में देशी-विदेशी निजी कारपोरेट निवेश बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आ सकेगी. लेकिन क्या सचमुच में ऐसा होगा?
कल भी जारी ....
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी की पहली क़िस्त)

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

चिदंबरम की प्राथमिकता सूची में कहाँ है शिक्षा?

शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसबार जब आम बजट पेश करने को खड़े होंगे तो उनके मन में क्या चल रहा होगा? अगर उनके हालिया बयानों को ध्यान में रखें तो उनकी सबसे बड़ी चिंता राजकोषीय घाटे को कम करने और अर्थव्यवस्था की गिरती वृद्धि दर को बढ़ाने की होगी. उनपर आगामी चुनावों के मद्देनजर एक लोकलुभावन बजट पेश करने का दबाव भी होगा.
वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को लुभाने के उपाय भी सोच रहे होंगे. उनकी निगाह शेयर बाजार पर भी होगी. लेकिन इन सबके बीच उनकी प्राथमिकताओं की सूची में शिक्षा का मुद्दा किस पायदान पर होगा? क्या शिक्षा का सवाल उनकी चिंताओं में होगा?
इस सवाल का उत्तर तो बजट में ही मिलेगा लेकिन उनके हालिया बयानों, साक्षात्कारों और भाषणों पर गौर करें तो लगता नहीं है कि बजट बनाते हुए वे शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने और इसके जरिये उसके समतामूलक विस्तार और उसकी गुणवत्ता को बेहतर बनाने जैसे मुद्दे उनके एजेंडे पर प्राथमिकता में हैं.

ऐसा नहीं है कि चिदंबरम शिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं. आज भारत जनसांख्यकीय लाभांश की जिस बेहद अनुकूल लेकिन नाजुक स्थिति में खड़ा है, उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत और उसके महत्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है.

उल्लेखनीय है कि भारत की जनसँख्या में इस समय लगभग ५० फीसदी आबादी २५ वर्ष से कम की उम्र की है. भारत आज दुनिया के चुनिन्दा सबसे जवान देशों में से एक है. जनसांख्यकीय तौर पर यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई देश अगर अपनी युवा आबादी की शिक्षा में अपेक्षित निवेश करे तो वह आर्थिक-सामाजिक विकास के मामले में तेजी से छलांग लगा सकता है.
दुनिया के विकसित देशों का इतिहास इसका सबूत है. लेकिन अगर शिक्षा और स्वास्थ्य खासकर शिक्षा में प्राथमिकता के आधार अपेक्षित निवेश नहीं किया गया तो जनसांख्यकीय लाभांश की यह स्थिति न सिर्फ व्यर्थ चली जाती है बल्कि उसके जनसांख्यकीय आपदा में बदलने के खतरे पैदा हो जाते हैं.
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी, उसके निजीकरण-व्यवसायीकरण और रोजगार के घटते अवसरों के बीच पिछले कुछ वर्षों में युवाओं की बढ़ती बेचैनी को देखते हुए यह आशंका बढ़ती जा रही है कि भारत जनसांख्यकीय लाभांश को गंवाने की ओर बढ़ रहा है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में एक के बाद दूसरी सरकार ने शिक्षा के विस्तार, उसे समावेशी बनाने और उसमें गुणवत्ता सुनिश्चित करने के बजाय उसे बाजार के हवाले करने पर ज्यादा जोर दिया है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले डेढ़ दशक में शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के पीछे हटने से जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका घटती गई है, वहीँ शिक्षा के समावेशी चरित्र और उसकी गुणवत्ता की कीमत पर बाजार और निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ती गई है. उदाहरण के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (२००७-१२) के दौरान उच्च शिक्षा के विस्तार में सबसे बड़ी भूमिका निजी क्षेत्र की रही.
याद रहे कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को खुद प्रधानमंत्री ने शिक्षा योजना घोषित किया था लेकिन २००६-०७ से २०११-१२ के बीच उच्च शिक्षा में पंजीकरण में ५३.११ लाख की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई लेकिन इसमें केन्द्र सरकार का हिस्सा मात्र २.५३ लाख और राज्य सरकारों का हिस्सा २३.७२ लाख रहा जबकि निजी क्षेत्र में इन दोनों से ज्यादा २६.८६ लाख पंजीकरण हुए.
हैरानी की बात नहीं है कि ग्यारहवीं योजना के आखिरी वर्ष आते-आते उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों के कुल पंजीकरण में निजी क्षेत्र का हिस्सा बढ़कर ५८.९ फीसदी हो गया है. इसकी तुलना में उच्च शिक्षा में पंजीकरण के लिहाज से केन्द्र का हिस्सा मात्र २.६ फीसदी और राज्य सरकारों का हिस्सा ३८.५ प्रतिशत रह गया है.

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्यारहवीं योजना के दौरान देश में निजी क्षेत्र ने ९८ विश्वविद्यालय, १७ डीम्ड विश्वविद्यालय, ७८१८ कालेज और ३५८१ डिप्लोमा संस्थान खोले. हाल ही में कर्नाटक विधानसभा के एक झटके में निजी क्षेत्र में तेरह नए विश्वविद्यालयों को खोलने की मंजूरी देने वाला विधेयक पारित किया है.

लेकिन प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से घुसपैठ कर रहा निजी क्षेत्र किसी दयानतदारी के भाव से नहीं बल्कि शिक्षा के तेजी से बढ़ते बाजार को कब्जाने और उससे अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के इरादे से आ रहा है.
हालाँकि शिक्षा क्षेत्र में मुनाफा कमाने यानी शैक्षिक संस्थान से हुई कमाई को संस्थान से बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है लेकिन किसी से छुपा नहीं है कि यह नियम सिर्फ कागजों में है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में घुसे भांति-भांति के कारोबारी इसे धता बताते हुए जमकर मुनाफा बना रहे हैं.
इस मुनाफे के लालच में ही छोटे-बड़े कारोबारियों से लेकर राजनेता, पूर्व नौकरशाह, प्रापर्टी डीलर, ठेकेदार और कोचिंग इंस्टीच्यूट चलानेवाले शिक्षा और छात्रों की कीमत पर मोटी कमाई कर रहे हैं.  
लेकिन शिक्षा के इस बढ़ते बाजार पर अब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों की नजर लगी हुई है. औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है.

यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूह इसमें घुसने के लिए बेचैन हैं और वे यू.पी.ए सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा कमाने और उसे की इजाजत देने की मांग कर रहे हैं.

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार कारपोरेट समूहों को यह इजाजत देने का मन बना चुकी है. बारहवीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) के दस्तावेज में इसकी वकालत की गई है. इसलिए आशंका यह है कि राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में वित्त मंत्री न सिर्फ शिक्षा के बजट में अपेक्षित बढ़ोत्तरी न करें बल्कि संभव है कि उसकी भरपाई के नामपर शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी निजी पूंजी को बढ़ावा देने की कोशिश भी करें.
यही नहीं, अगर वे शिक्षा के बजट आवंटन में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं करते हैं तो परोक्ष रूप से यह शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए रास्ता खोलने की तरह ही होगा क्योंकि शिक्षा में सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार के अभाव का सबसे अधिक फायदा निजी क्षेत्र ही उठा रहा है.
लेकिन निजी क्षेत्र ने शिक्षा में समता और गुणवत्ता की कीमत पर जिस तरह से उसे दुधारू गाय की तरह से दोनों हाथों से दुहना शुरू कर दिया है, उसके कारण भारत जनसांख्यकीय लाभांश की स्थिति गंवाता जा रहा है. देर-सबेर देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में २२ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)        

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

चिदंबरम से है 'चमत्कार' की उम्मीद

लेकिन वित्त मंत्री क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और आवारा पूंजी को खुश करने में जुटे हैं

यह यू.पी.ए-२ सरकार का चौथा और २०१४ के आम चुनावों से पहले का आखिरी पूर्ण बजट है. यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस को वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से एक चमत्कारिक बजट की उम्मीद है. वैसा ही जैसा उन्होंने २००९ के चुनावों से पहले पेश किया था.
उस लोकलुभावन बजट के सहारे यू.पी.ए और कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने में आसानी हो गई थी. कांग्रेस चिदंबरम से उसी चमत्कार को दोहराने की उम्मीद कर रही है. लेकिन वित्त मंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि चमत्कारों को दोहराना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि चमत्कार बार-बार नहीं होते.
असल में, २००८-०९ और २०१३-१४ के बीच बहुत कुछ बदल चुका है. २००८-०९ में वैश्विक आर्थिक संकट के झटकों के बावजूद अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ६.७ फीसदी थी और उसके पहले २००७-०८ में वृद्धि दर ९.३ फीसदी तक पहुँच गई थी. लेकिन आज चालू वित्तीय वर्ष २०१२-१३ में वृद्धि दर फिसलकर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर ५ फीसदी पर पहुँच गई है जबकि पिछले साल (११-१२) भी यह मात्र ६.२ फीसदी थी.

साफ़ है कि अर्थव्यवस्था संकट में है. उद्योग क्षेत्र से लेकर कृषि क्षेत्र और निर्यात से लेकर निवेश तक का प्रदर्शन बद से बदतर होता गया है. यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती का शिकार होता दिख रहा है. इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है. 

यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह पिछले तीन-चार साल से लगातार महंगाई आसमान छू रही है. इसका सीधा असर न सिर्फ गरीबों और मध्य वर्ग के उपभोग पर पड़ा है बल्कि उसकी बचत भी प्रभावित हुई है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार न तो अर्थव्यवस्था को संभल पा रही है और न ही महंगाई पर काबू कर पा रही है. सच यह है कि उसने महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं. जैसे इतना ही काफी नहीं हो, पिछले चार साल में एक के बाद दूसरे घोटालों के भंडाफोड और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों ने सरकार की साख और इकबाल को पाताल में पहुंचा दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि किसी वित्त मंत्री के लिए बजट पेश करने की इससे प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं हो सकती थीं. इसके बावजूद पी. चिदंबरम से न सिर्फ यू.पी.ए और कांग्रेस पार्टी को चमत्कार की अपेक्षा है बल्कि आमलोगों को भी उनसे राहत और मरहम की उम्मीदें हैं. आम आदमी की इस बजट से एक क्षीण सी उम्मीद यह है कि वित्त मंत्री उसे आसमान छूती महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से राहत दिलाने के ठोस उपाय करेंगे.

यह बात और है कि पिछले छह महीने में जब से चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभाला है, आम आदमी की कसमें खानेवाली यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर ही डाला है.

लेकिन चिदंबरम को अच्छी तरह पता है कि यह चुनावी साल है और उनकी कांग्रेस पार्टी को वोट मांगने वापस उसी आम आदमी के पास जाना है जो महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था की बदहाली की मार झेल रहा है. स्वाभाविक तौर पर वह सरकार से बहुत नाराज है. यू.पी.ए सरकार के लिए यह बजट आम आदमी खासकर गरीबों, किसानों और मध्यवर्ग को मनाने और रिझाने का आखिरी मौका है.
लेकिन दूसरी ओर, वित्त मंत्री पर कारपोरेट क्षेत्र और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का भी जबरदस्त दबाव है. यू.पी.ए सरकार से उसकी नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. वह सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगाता रहा है और उसकी विश लिस्ट भी काफी लंबी है.
चिदंबरम उसकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. खासकर कार्पोरेट्स के एक बड़े हिस्से के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी के पक्ष में झुकने के बाद से कांग्रेस में बेचैनी है. कांग्रेस कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है.

पिछले छह महीनों में कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मन-मुताबिक जिस तरह से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताबड़तोड़ फैसले हुए हैं, उससे साफ़ है कि चिदंबरम चुनावी साल में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को खुश रखने का महत्व जानते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि बजट की व्यस्तताओं के बावजूद वित्त मंत्री ने पिछले महीने वैश्विक वित्तीय पूंजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन और फ्रैंकफर्ट का तूफानी दौरा किया और बड़े कार्पोरेट्स और निवेशकों को व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे एक ‘जिम्मेदार बजट’ पेश करेंगे.
चिदंबरम के इस बयान की गुलाबी आर्थिक मीडिया में यह व्याख्या की जा रही है कि यह बजट लोकलुभावन नहीं होगा और इसमें सबसे ज्यादा जोर राजकोषीय घाटे को कम करने यानी सरकारी खर्चों को कम करने पर होगा. लेकिन सरकारी खर्चों में कटौती करने पर लोकलुभावन बजट पेश करने की गुंजाइश सीमित हो जाती है. 
खुद वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी और अगले साल जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखने की घोषणा कर रखी है. हालाँकि चिदंबरम ने यह एलान मूडीज, स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स और फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करने के लिए किया था।

कारण, वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे न बढ़ाने की स्थिति में भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे ‘कबाड़’ श्रेणी (जंक स्टेटस) में डालने की धमकी दे रही थीं. इससे विदेशी पूंजी खासकर संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी के देश से पलायन और अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने का खतरा था.

लेकिन यह घोषणा करके चिदंबरम ने अपने हाथ खुद बाँध लिए हैं. अब उनके लिए यह बहाना बनाना आसान हो गया है कि वे बजट में आम लोगों के लिए बहुत राहत नहीं दे सकते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है और राजकोषीय घाटे को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा सकती हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकता है.
असल में, वित्त मंत्री की रणनीति यह है कि बजट को लेकर आमलोग ज्यादा उम्मीदें और अपेक्षाएं न पालें और जब लोगों की अपेक्षाएं कम होंगीं तो मामूली राहत देकर भी वाहवाही लूटी जा सकती है.
चिदंबरम इस रणनीति के जरिये एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं. एक ओर वे मध्यवर्ग को टैक्स में मामूली छूट और बचत पर कुछ रियायतें और गरीबों के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और खाद्य सुरक्षा योजना के लिए प्रतीकात्मक प्रावधान करके चुनावी गणित साधने की तैयारी कर रहे हैं.
वहीँ दूसरी ओर, वे सरकारी खर्चों में कटौती खासकर विकास और सामाजिक योजनाओं के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे में कमी और बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और कार्पोरेट्स को लुभाने के लिए और रियायतें देकर कार्पोरेट्स का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इन दोनों में उनकी प्राथमिकता क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करना और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना है. इसके लिए यू.पी.ए सरकार किसी भी हद तक जाने को तैयार है. आर्थिक सुधारों खासकर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बाजार के हवाले करने के फैसलों से वित्त मंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वे किसके प्रति जिम्मेदार हैं?

यह और बात है कि चुनावी मजबूरियों के कारण इसबार बजट भाषण में वे आम आदमी, किसानों, युवाओं, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की खूब दुहाईयाँ देंगे लेकिन बजट में उनके लिए प्रतीकात्मक प्रावधानों से ज्यादा कुछ नहीं होगा.

सच पूछिए तो अगर चुनावों में वोटों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों के पास जाने की मजबूरी नहीं होती तो यू.पी.ए और चिदंबरम को आम आदमी और गरीबों की याद भी नहीं आती.
('नेशनल दुनिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २१ फरवरी को प्रकाशित)               

मंगलवार, फ़रवरी 19, 2013

वामपंथ से क्यों फिसली हिंदी पट्टी?

रैडिकल बदलाव के एजेंडे और जनसंघर्षों और स्वतंत्र दावेदारी की राजनीति को छोड़कर बुर्जुआ पार्टियों का पिछलग्गू बनने की कीमत चुका रहा है वामपंथ


हिंदी पट्टी में वामपंथ के फलने-फूलने की अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उसकी विफलता भारतीय जनतांत्रिक राजनीति की एक ऐसी त्रासदी है जिसने उसमें निहित संभावनाओं को न सिर्फ संकुचित और सीमित कर दिया है बल्कि प्रगतिशील और रैडिकल विकल्प की उम्मीदों को भी अवरुद्ध सा कर दिया है.
यह त्रासदी इसलिए कुछ ज्यादा ही चुभती है कि हिंदी पट्टी की राजनीति में वामपंथ इस तरह से हाशिए पर पहले कभी नहीं था. तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस के मुकाबले मुख्य विपक्ष की भूमिका में सी.पी.आई ही थी. उसका असर मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में भी था.
लेकिन पहले नेहरु के छद्दम समाजवाद के आकर्षण और धीरे-धीरे जनसंघर्षों से पीछे हटकर चुनावी राजनीति के दलदल में फंसते गए वामपंथ को ६० के दशक में वैचारिक-कार्यनीतिक सवालों पर मतभेद के कारण विभाजन का शिकार होना पड़ा. इस विभाजन ने सी.पी.आई को न सिर्फ सांगठनिक-राजनीतिक रूप से कमजोर कर दिया बल्कि उसका राजनीतिक आकर्षण भी कम होने लगा.

यही नहीं, विभाजन के बाद वह कांग्रेस के और नजदीक पहुँच गई और उत्तर भारत की राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के सबसे जबरदस्त उभार के दौर में इमरजेंसी में वह कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आई. इसने उसकी रही-सही साख भी खत्म कर दी.

सच यह है कि सी.पी.आई उस सदमे से कभी बाहर नहीं निकल पाई. लेकिन दूसरी ओर सी.पी.आई से अलग होकर बनी सी.पी.आई-एम भी जल्दी ही उसी राह पर चल निकली. जल्दी ही सी.पी.आई-एम में भी १९६७ में भी विभाजन हो गया और चारु मजुमदार के नेतृत्व में सी.पी.आई-एम.एल ने संसदीय राजनीति के उलट सशस्त्र क्रांति का आह्वाहन किया.
इसने सी.पी.आई-एम को अंदर से हिला कर रख दिया. इस झटके से वह वास्तव में कभी नहीं उबर पाई क्योंकि उसने उसके वैचारिक आभामंडल को निस्तेज सा कर दिया. हालाँकि सी.पी.आई-एम ने सी.पी.आई की तरह इमरजेंसी में कांग्रेस के साथ खड़े होने की गलती नहीं की लेकिन वह खुलकर इमरजेंसी विरोधी आंदोलन में भी नहीं उतरी.
सच यह है कि इमरजेंसी विरोधी आंदोलन का विरोध करके और उससे दूर रहकर मुख्यधारा की इन दोनों वामपंथी पार्टियों ने खुद को हिंदी पट्टी में खड़ा होने का एक बेहतरीन मौका गँवा दिया. हालाँकि देश भर में खासकर उत्तर और पूर्व भारत में कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा सी.पी.आई-एम को पश्चिम बंगाल में मिला.
उसने इस मौके का फायदा उठाकर खुद को बंगाल की राजनीति में पंचायत स्तर तक खड़ा करने में कामयाबी भी हासिल की लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि बंगाल में लगातार ३५ सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद सी.पी.आई-एम कभी भी हिंदी पट्टी के राज्यों खासकर बिहार में जड़ें नहीं जमा पाई.

हालाँकि इसी दौर में सी.पी.आई का लगातार क्षरण हो रहा था और १९८९-९० में सोवियत संघ के ध्वंस ने उसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोवियत संघ के ध्वंस का नकारात्मक असर समूचे वामपंथ पर पड़ा.
लेकिन ८० के दशक के उत्तरार्द्ध और खासकर ९० के दशक में हिंदी पट्टी में सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम ने जिस तरह से पहले कांग्रेस से लड़ने के नामपर जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों के एजेंडे के पीछे-पीछे चलना शुरू किया और वामपंथी की स्वतंत्र भूमिका और दावेदारी को छोड़ना शुरू किया, वैसे-वैसे उनकी कतारें भी उन मध्यमार्गी पार्टियों खासकर अस्मितावादी पार्टियों के पीछे खिसकने लगीं.
अगर यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी पट्टी में मुलायम सिंह और बिहार में लालू प्रसाद के लिए जमीन तैयार करने में दोनों वामपंथी पार्टियों ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उस दौर में कांग्रेस विरोधी रैलियों में सबसे ज्यादा लाल झंडे दिखाई देते थे लेकिन उन रैलियों का एजेंडा और राजनीति के अलावा नेता भी वी.पी.सिंह, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद हुआ करते थे.

यही नहीं, १९८७ से लेकर ९५ तक इन दोनों राज्यों में पहले कांग्रेस को हटाने और फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर दोनों वाम पार्टियों ने हर तरह से मुलायम सिंह और लालू प्रसाद को खड़ा करने और फिर अपनी जड़ें जमाने में मदद की.

यहाँ तक कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम हिंदी पट्टी में अपने बचे-खुचे आधारों को गंवाकर भी मध्यमार्गी पार्टियों का झंडा ढोने में जुटी रहीं. असल में, मुद्दा सिर्फ मध्यमार्गी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे चलने का ही नहीं था.
बुर्जुआ पार्टियों के साथ तालमेल और गठबंधन के लिए वामपंथी मोर्चे की पार्टियों खासकर सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम ने समाज में रैडिकल बदलाव के एजेंडे और उसके लिए चलाए जानेवाले जनसंघर्षों को भी छोड़ दिया. यह वामपंथी मोर्चे के सरकारी वामपंथ में पतित होने का दौर था, जब सरकार और संसदीय राजनीति की क्षणिक और तुच्छ सफलताओं के लिए दोनों वामपंथी पार्टियों ने अगणित समझौते किये.
इस दौर में एक ओर सी.पी.आई जहाँ बुर्जुआ पार्टियों के साथ तालमेल में मिलनेवाली गिनती की सीटों और सरकारों में घुसने की राजनीति की ओर बढ़ चली, वहीँ सी.पी.आई-एम हिंदी पट्टी में घुसने के लिए इन बुर्जुआ पार्टियों की ओर से मिलनेवाली इक्का-दुक्का सीटों के लालच में उनके पीछे खड़ी होने लगी.

यही नहीं, ९० के इस झंझावाती दशक में जब हिंदी पट्टी एक जबरदस्त उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी और वामपंथ के लिए एक रैडिकल एजेंडे को आगे बढ़ाने का शानदार मौका था, उस समय उसने न सिर्फ बुर्जुआ पार्टियों और उनके संकीर्ण अस्मितावादी राजनीतिक एजंडे के आगे समर्पण कर दिया बल्कि उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत विचलनों को भी अनदेखा करने लगीं.

सच पूछिए तो यह हिंदी पट्टी की राजनीति में एक रैडिकल हस्तक्षेप करने और उसे वाम दिशा देने का दूसरा शानदार मौका था जिसे सरकारी वामपंथ ने अपनी अवसरवादी राजनीति के कारण गँवा दिया.
इस दौर में हालत यह हो गई थी कि सी.पी.आई-एम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत बुर्जुआ राजनीति के ‘चाणक्य’ माने जाने लगे थे जिनकी सबसे बड़ी ‘खूबी’ बुर्जुआ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच मध्यस्थता कराना, जोड़तोड़ करना और बेमेल गठबंधनों को चलाना था. ऊपर से आ रहे इन संकेतों की तार्किक परिणति यह हुई कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम की हिंदी पट्टी की राज्य इकाइयों में भी सुरजीत की अनुकृतियाँ उभर आईं.
अफ़सोस की बात यह है कि उस दौर में बहुतेरे वाम बुद्धिजीवी न सिर्फ सुरजीत और सरकारी वामपंथ की कथित सफलताओं की बलैयां ले रहे थे बल्कि हिंदी पट्टी में लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे ‘सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता’ के नए बुर्जुआ चैम्पियनों के गुणगान में जुटे हुए थे.

हालाँकि यह सबको पता था कि ‘सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता’ की इस राजनीति का न कोई व्यापक रैडिकल एजेंडा था और न ही उसके प्रति कोई गहरी प्रतिबद्धता थी. वह न सिर्फ संकीर्ण जातिवादी एजेंडे और वोटों के सिनिकल जोड़तोड़ और गुणा-भाग पर टिकी थी बल्कि भ्रष्ट, अपराधी और अवसरवादी तत्वों का गठजोड़ भी थी. लेकिन जनता के उनसे जल्दी ही हुए मोहभंग के बावजूद सरकारी वामपंथ उनके पीछे खड़ा रहा.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी वामपंथ की बुर्जुआ पार्टियों की इस पिछलग्गू और सिनिकल-अवसरवादी राजनीति ने हिंदी पट्टी में एक ओर संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति करनेवाली सपा-बसपा-राजद-जे.डी-यू जैसी बुर्जुआ पार्टियों को और दूसरी ओर, भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टियों को जड़ें जमाने का मौका दिया.
कांग्रेस ने हिंदी पट्टी में जो जगह खाली की, उसे भरने की स्वाभाविक दावेदार होते हुए भी वामपंथी ताकतें हिंदी पट्टी में फिर पिछड गईं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकारी वामपंथ ने इससे कोई सबक नहीं सीखा. गलतियाँ और ऐतिहासिक भूलें दोहराने का यह सिलसिला जारी रहा.
२००४ में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को बाहर से समर्थन देकर और यू.पी.ए के साथ को-आर्डिनेशन कमिटी में बैठकर सरकारी वामपंथ ने जिस तरह से उसे चलाया, उसने न सिर्फ कांग्रेस को नया जीवन दिया बल्कि वामपंथ को हिंदी पट्टी के साथ-साथ अपने आधार राज्यों से भी बेदखल कर दिया.
हद तो यह हो गई कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का विरोध करनेवाली सी.पी.आई-एम ने पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के नामपर उन्हीं सुधारों को जिस निर्ममता से लागू करना शुरू किया, उसके कारण सिंगुर-नंदीग्राम में किसानों पर गोलियाँ चलाने में भी उस हिचक नहीं हुई. उसे जल्दी ही इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी और बंगाल में ३५ वर्षों के राज का अंत हो गया.
लेकिन इसका सीधा असर हिंदी पट्टी पर भी पड़ा. सरकारी वामपंथ की बची-खुची आभा और नैतिक तेज भी जाता रहा. इसके अलावा उसने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के खिलाफ बोलने का नैतिक अधिकार भी खो दिया.

लेकिन हैरानी की बात नहीं है कि सरकारी वामपंथ इससे भी सबक सीखने को तैयार नहीं है. खासकर सी.पी.आई-एम अब भी कांग्रेस के साथ खुले या परोक्ष जोड़तोड़ का मौका खोज रही है ताकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल को अलग-थलग करके पुनर्वापसी का रास्ता आसान हो सके. यही कारण है कि पार्टी के अंदर तीखे विरोध के बावजूद सी.पी.आई-एम ने राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया.

सरकारी वामपंथ के इस रवैये के सिलसिले में सी.पी.आई-एम.एल के महासचिव विनोद मिश्र एक बड़े पते की बात कहा करते थे. उनका कहना था कि एक ओर सी.पी.आई-एम है जो अपनी राज्य सरकारों को बचाने के लिए अपने मुद्दे भी कुर्बान करने से परहेज नहीं करती है और दूसरी ओर संघ परिवार और भाजपा है जिसने अपने मुद्दे (रामजन्मभूमि) के लिए अपनी पांच राज्य सरकारें भी कुर्बान कर दीं.
इसे वामपंथ और भाजपा की तुलना और भाजपा को बेहतर बताने की कोशिश के बजाय इस रूप में देखने की जरूरत है कि आप अपनी राजनीति, विचार और एजेंडे को लेकर कितने प्रतिबद्ध और दृढ हैं.
आखिर क्या कारण है कि भाजपा ने हिंदी पट्टी की राजनीति में जड़ें जमाने में कामयाबी हासिल की और वामपंथ उखड गया? क्या इसके लिए सरकारी वामपंथ की वामपंथी-रैडिकल एजेंडे को छोड़कर बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों के पीछे-पीछे चलने की पिछलग्गू राजनीति जिम्मेदार नहीं है? यहाँ यह सवाल पूछा जा सकता है कि इसी दौर में हिंदी पट्टी में धूमकेतु की तरह उभरी सी.पी.आई-एम.एल (लिबरेशन) या माले की चमक क्यों मंद पड़ गई?

इसमें कोई शक नहीं है कि ८० के दशक के उत्तरार्द्ध और ९० के दशक के मध्य तक हिंदी पट्टी खासकर बिहार के खेत-खलिहानों और उत्तर प्रदेश के परिसरों में रैडिकल वामपंथ की स्वतंत्र पताका लेकर खड़ी हुई माले इस अग्रगति को कायम नहीं रख पाई लेकिन आज भी वह हिंदी पट्टी में वामपंथ की सबसे मुखर आवाज़ है. सबसे ज्यादा उम्मीद भी उससे ही है.

लेकिन उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे न सिर्फ सरकारी वामपंथ की भूलों की कीमत चुकानी पड़ रही है बल्कि वह अस्मितावादी राजनीति के सकारात्मक निषेध पर खड़ी रैडिकल बदलाव की राजनीति का लोकप्रिय मुहावरा खोज पाने में कामयाब नहीं हो रही है.
यही नहीं, वह वाम राजनीति में संयुक्त मोर्चे के वैकल्पिक माडल को भी खड़ा कर पाने में सफल नहीं हुई है जिसके कारण वह काफी हदतक अलग-थलग पड़ी रहती है. लेकिन सरकारी वामपंथ की नाकामियों को देखते हुए यह भी सच है कि हिंदी पट्टी में वामपंथ की सफलता का कोई शार्टकट नहीं है. वह रैडिकल बदलाव की राजनीति के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता और जनसंघर्षों से ही आएगी.            
(लखनऊ से प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के फ़रवरी' १३ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)