गुरुवार, अप्रैल 26, 2012

गई नहीं महंगाई

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है यू.पी.ए सरकार  मुद्रास्फीति के आंकड़ों में अपनी विफलता छुपाने की कोशिश कर रही है

महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों की लीला अद्दभुत है. इस लीला के कारण यह संभव है कि मुद्रास्फीति की दर कम हो लेकिन आप महंगाई की मार से त्रस्त हों. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार दावे कर रही है कि महंगाई काबू में आ गई है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर धीरे-धीरे नीचे आ रही है.

सरकार के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में सात फीसदी से भी नीचे ६.४३ प्रतिशत पर पहुँच गई है. लेकिन इन दावों के विपरीत आम आदमी को आसमान छूती महंगाई से कोई राहत नहीं मिली है. उल्टे पिछले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं खासकर फलों-सब्जियों से लेकर दूध तक की कीमत में जबरदस्त उछाल के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया है.

ऐसा नहीं है कि यह महंगाई आंकड़ों में नहीं दिख रही है. यह और बात है कि सरकार उसे न तो खुद देखना चाहती है और न लोगों को देखने देना चाहती है. लेकिन अगर थोड़ा बारीकी से और उचित सन्दर्भ में देखा जाए तो त्रस्त करनेवाली यह महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी दिख रही है. उदाहरण के लिए, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में उछलकर ९.४७ प्रतिशत पर पहुँच गई.

यही नहीं, शहरी इलाकों में यह दर दोहरे अंकों में १०.३ फीसदी तक पहुँच गई है जबकि ग्रामीण इलाकों में भी बढ़कर ८.७९ प्रतिशत हो गई है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वह सूचकांक है जो खुदरा कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन ज्यादा है. इसके उलट थोक मूल्य सूचकांक थोक कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन कम है.

लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही फरवरी के ६.९५ फीसदी में मामूली गिरावट के साथ मार्च में ६.८९ फीसदी हो गई हो लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि इसमें खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर फ़रवरी के ६.०७ प्रतिशत से उछलकर ९.९४ फीसदी पर पहुँच गई.
साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई के मामले में थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. इन दोनों ही पैमानों पर आम लोगों को सबसे ज्यादा चुभनेवाली खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर लगभग दोहरे अंकों के पास है. इसके बावजूद सच यह है कि वास्तविक महंगाई की मार मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों में महसूस नहीं की जा सकती है.

इसकी वजह यह है कि मुद्रास्फीति के ये आंकड़े
पिछली साल की तुलना में हैं जब महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी सचमुच आसमान छू रही थी. इसे अर्थशास्त्र में बेस प्रभाव कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि पिछले साल मार्च में मुद्रास्फीति की दर ९.६८ फीसदी थी. चूँकि पिछले साल मार्च में थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति की दर आसमान छू रही थी, इस कारण उसकी तुलना में इस साल मार्च में कीमतों में बढोत्तरी के बावजूद मुद्रास्फीति की दर कम ६.८९ प्रतिशत दिख रही है.
लेकिन यह सिर्फ आंकड़ों का चमत्कार है. तथ्य यह है कि महंगाई अभी भी आसमान छू रही है. सच पूछिए तो यह महंगाई अधिक त्रस्त करनेवाली इसलिए भी है कि पिछले तीन सालों से लगातार कीमतें ऊपर ही जा रही हैं.


लेकिन एक ओर इस तकलीफदेह महंगाई के बीच आम लोगों खासकर गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है जिनके लिए यह महंगाई टैक्स की तरह है. दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार मुद्रास्फीति के आंकड़ों से खेलने और उनके पीछे मुंह छुपाने की कोशिश कर रही है. ऐसा नहीं है कि सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह सच्चाई मालूम नहीं है.

हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी महंगाई की स्थिति को चिंताजनक बताते हुए गाहे-बगाहे जबानी जमा खर्च करते रहते हैं और महंगाई से निपटने के लिए और प्रयास करने का वायदा करते रहे हैं. लेकिन फैसले ऐसे कर रहे हैं जो महंगाई की आग में और घी डालने की तरह है.

उदाहरण के लिए, यह जानते हुए भी कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की आसमान छू रही है, वित्त मंत्री ने ताजा बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की बढोत्तरी कर दी. क्या इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी? इसी तरह पेट्रोलियम सब्सिडी में कटौती के नामपर पेट्रोल, डीजल और एल.पी.जी की कीमतों में बढोत्तरी की तैयारी है. क्या यह महंगाई की आग में तेल डालना नहीं होगा? यही नहीं, खुद सरकार खाद्यान्नों की सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है.


तथ्य यह है कि इस साल जनवरी में सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल का कुल भण्डार ५५३.९४ लाख टन था जोकि न्यूनतम बफर नार्म से दोगुने से भी ज्यादा था. कहने की जरूरत नहीं है कि जब सरकार खुद इतना अनाज दबाकर बैठेगी तो बाजार में किल्लत होगी और अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियाँ और व्यापारी उसका फायदा उठाएंगे.

लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार को आम आदमी से ज्यादा अनाज के व्यापारियों और बड़ी कंपनियों के मुनाफे की चिंता है. अन्यथा वह महंगाई को काबू में करने और लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपने गोदामों में अनाज सड़ाने और बर्बाद करने के बजाय उसे आमलोगों और गरीबों तक पहुंचाने के उपाय करती.
सरकार के इस रवैये का फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठा रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों बिना किसी ठोस कारण के सब्जियों से लेकर अनाजों, दूध, अंडे और खाद्य तेलों की कीमतें आसमान छू रही हैं. साफ़ है कि इसके पीछे मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों की भूमिका है. लेकिन केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी उनके आगे घुटने टेक दिए हैं और महंगाई से लड़ने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक और मौद्रिक नीतियों के भरोसे छोड़ दिया है.

लेकिन इससे सट्टेबाजों की चांदी हो गई है. तथ्य यह है कि जिंसों के वायदा बाजार में खाद्य वस्तुओं की जमकर सट्टेबाजी हो रही है. सिर्फ जनवरी से मार्च के बीच तीन महीनों में सरसों की कीमतों में १०० फीसदी, चना में १०८ फीसदी, आलू में १७० फीसदी और सोयाबीन में ११८ फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई है.

हालाँकि अब खाद्य मंत्री के.वी थामस की नींद खुली है और वे कह रहे हैं कि इसकी जांच कराई जायेगी और जरूरत हुआ तो इन जिंसों के वायदा कारोबार पर रोक लगाई जाएगी. लेकिन यह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने की तरह है. सट्टेबाज सरकार से ज्यादा तेज हैं और जिंस बाजार पूरी तरह से उनके कब्जे में है. लेकिन सच पूछिए तो सरकार उन्हें छूने को भी तैयार नहीं है क्योंकि खुले बाजार की अर्थनीति में भरोसा करनेवाली सरकार के लिए यह जिंस बाजार में उसकी अगाध आस्था का प्रश्न है.

वैसे भी खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव कह चुके हैं कि ६.५ से ७ फीसदी की मुद्रास्फीति की दर एक ‘अनिवार्य बुराई’ बन चुकी है. मतलब साफ़ है कि ७ फीसदी की मुद्रास्फीति अब सामान्य मुद्रास्फीति दर है जिसमें आमलोगों को जीने की आदत डाल लेनी चाहिए क्योंकि सरकार ने महंगाई के आगे हाथ खड़े कर दिए हैं.

ह और बात है कि राजनीतिक कारणों से वह महंगाई से लड़ने का नाटक करती रहेगी. यह सरकार की लीला है. लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है. लोग इसे समझ रहे हैं. चुनावों के नतीजों से यह साफ़ है.

('दैनिक भाष्कर' के आप-एड पृष्ठ पर २४ अप्रैल को प्रकाशित आलेख)

1 टिप्पणी:

अजय कुमार झा ने कहा…

बेहतरीन विश्लेषण किया आपने ।