सोमवार, मार्च 12, 2012

अब शुरू होगी अखिलेश यादव की असली परीक्षा

उनके शुरूआती संकेतों, संदेशों और फैसलों से सपा सरकार की दिशा तय हो जाएगी 

उत्तर प्रदेश में इस सप्ताह अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की नई सरकार सत्ता संभाल लेगी. पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में यह दूसरी सरकार है जिसे न सिर्फ पूर्ण और स्पष्ट बहुमत से प्राप्त है बल्कि जो इतनी सद्भावनाओं के बीच सत्ता में आई है. इसमें कोई शक नहीं है कि इस सरकार से उत्तर प्रदेश के लोगों को जबरदस्त उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं.

लेकिन अच्छी बात यह है कि इस सरकार के प्रति लोगों में भारी सद्भावना है और लोग अखिलेश यादव को पूरा मौका और समय देने के लिए तैयार हैं. यह नई सपा सरकार की सबसे बड़ी पूंजी है.

याद रहे, इससे पहले २००७ में मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार भी इससे थोड़ी ही कम सीटों लेकिन पूर्ण बहुमत और सभी वर्गों की सद्भावनाओं के बीच सत्ता में पहुंची थी. मायावती सरकार से भी लोगों खासकर गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, किसानों, युवाओं और महिलाओं को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. लोगों ने मायावती को भी पूरा मौका और समय दिया.

लेकिन उन्होंने वह मौका और लोगों की सद्भावनाओं को गंवाने में ज्यादा समय नहीं लगाया. बसपा सरकार जल्दी ही संगठित भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी, राजनीतिक अहंकार, मनमानी और दमन-उत्पीड़न की सरकार बन गई जिसका खमियाजा उसे इन चुनावों में भुगतना पड़ा है.

इस मायने में यह चुनाव वास्तव में मायावती सरकार के खिलाफ जनादेश है. बसपा सरकार के खिलाफ लोगों के गुस्से का सबसे अधिक फायदा समाजवादी पार्टी को मिला. हालांकि इसके कई राजनीतिक, सामाजिक और सांगठनिक कारण हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन चुनावों में समाजवादी पार्टी को एक सकारात्मक जनादेश भी मिला है.
इसमें समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों, नकारात्मक के बजाय सकारात्मक प्रचार और उसके साथ खुद अखिलेश यादव की साफ़-सुथरी छवि और गुंडा-माफिया राज के खात्मे की उनकी स्पष्ट प्रतिबद्धता की बहुत बड़ी भूमिका है.

लेकिन सपा के लिए चुनाव जीतना जितना आसान था, खासकर बसपा विरोधी माहौल के कारण, उससे अधिक मुश्किल और चुनौती भरा रास्ता आगे का है. युवा अखिलेश यादव से अपेक्षाएं और उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं. ये अपेक्षाएं और उम्मीदें उन्होंने खुद पैदा की हैं.

उनके सामने चुनौती न सिर्फ एक भ्रष्टाचार मुक्त और साफ़-सुथरी सरकार चलाने और गुंडों-माफियाओं पर अंकुश लगाते हुए कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने की चुनौती है बल्कि उन वायदों और प्रतिबद्धताओं को भी पूरा करना है जिसका वायदा घोषणापत्र में किया गया है.

जाहिर है कि यह आसान नहीं होगा. हालांकि अखिलेश यादव के पास पांच साल हैं लेकिन सच यह है कि उत्तर प्रदेश के लोगों खासकर युवाओं में जितनी बेचैनी है, उसके कारण कई मामलों में कुछ करके दिखाने को उनके पास बहुत कम समय है. अखिलेश यादव ने अपने पिता से लोहिया जी का यह कथन जरूर सुना होगा कि ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं.’

उत्तर प्रदेश में लोगों की आकांक्षाएं जिस तरह से उबल रही हैं, उससे लगता नहीं है कि लोग खासकर युवा बहुत दिनों तक इंतज़ार करेंगे. सनद रहे कि मायावती सरकार के पराभव की शुरुआत भी सिर्फ दो सालों में ही २००९ के आम चुनावों के साथ हो गई थी.

उम्मीद है कि अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी पिछली सरकार के हश्र को याद रखेगी. इस नाते अगले कुछ महीने अखिलेश की परीक्षा के होंगे. उनकी सबसे पहली और सबसे बड़ी परीक्षा कानून-व्यवस्था को बनाए रखने खासकर समाजवादी पार्टी से जुड़े विधायकों, सांसदों और पार्टी कार्यकर्ताओं-पदाधिकारियों को कानून हाथ में लेने, गुंडागर्दी करने और थानों को चलाने से रोकना होगा.

लेकिन चिंता की बात यह है कि मतगणना के नतीजों के आने के बाद से जिस तरह से पूरे प्रदेश से सपा नेताओं और समर्थकों की मनमानी, गुंडागर्दी और हंगामों की खबरें आ रही हैं, उससे माहौल बिगड़ रहा है. खासकर दलितों पर हमलों से सामाजिक सद्दभाव बिगड़ रहा है.

इसपर अगर तुरंत अंकुश नहीं लगाया गया और अपराधियों को दण्डित नहीं किया गया तो इसका बहुत गलत सन्देश जाएगा. यह कहने से काम नहीं चलेगा कि यह बसपा समर्थक अफसरों की सपा को बदनाम करने की साजिश है. इन बहानों से काम नहीं चलेगा.

सच सामने है. आगरा के बाह क्षेत्र के विधायक अरिदमन सिंह के समर्थकों पर बसपा समर्थक दलित ग्राम प्रधान के पति की हत्या का आरोप लगा है. यह और ऐसे ही कुछ और मामले अखिलेश यादव की सरकार के लिए पहले टेस्ट केस हैं. अगर इस मामले में विधायक सहित बाकी नामजद अपराधियों को तुरंत जेल भेजने में सरकार नाकाम रहती है तो सरकार की फिसलन शुरू हो जायेगी, जिसे फिर रोक पाना मुश्किल हो जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार संकेतों, संदेशों और मिसालों से चलती है. प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस मशीनरी सपा के नए नेतृत्व से बयानों से आगे बढ़कर स्पष्ट संकेतों का इंतज़ार कर रही है. उदाहरण के लिए, चुनावों के दौरान अखिलेश यादव ने जिस तरह से डी.पी. यादव को पार्टी में घुसने से रोक दिया था, वहीँ से उनका राजनीतिक ग्राफ चढना शुरू हुआ.
उस एक कदम से सपा के खिलाफ विपक्ष के सबसे बड़े आरोप की धार भोथरी हो गई थी. हालांकि यह तथ्य है कि सपा के नेताओं और विधायकों में ऐसे दागी और अपराधिक छवि के लोगों की तादाद अच्छी-खासी है जो मौके के इंतज़ार में हैं.

इस अर्थ में अखिलेश यादव की यह भी बड़ी परीक्षा है कि वे मंत्रिमंडल में किन लोगों को शामिल करते हैं और उन्हें कौन से विभाग देते हैं? अगर मंत्रिमंडल में ऐसे कुछेक ‘माननीयों’ को जगह मिल जाती है जिनकी छवि दागदार है और आपराधिक मामलों में आरोपित हैं तो जैसे तालाब को गंदा करने के लिए एक भी मछली काफी होती है, वैसे ही मंत्रिमंडल में उनकी उपस्थिति भर से एक गलत सन्देश चला जाएगा. यही नहीं, उन्हें अपने विधायकों, सांसदों और मंत्रियों पर पूरा अंकुश रखना होगा.

इसी तरह नौकरशाहों की नियुक्तियों में भी अगर योग्य, ईमानदार, काम के प्रति निष्ठावान और संवेदनशील अफसरों के बजाय भ्रष्ट, अक्षम और काम के बजाय व्यक्तिगत निष्ठा को पैमाना बनाया गया तो वह स्थिति आते देर नहीं लगेगी जो पिछली बसपा और उसके पहले सपा और भाजपा सरकारों के दौरान रही है.

अखिलेश यादव को याद रखना होगा कि इस बार वे गठबंधन और सरकार चलाने की मजबूरी जैसे बहाने नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने छप्पर फाड़ बहुमत दिया है.

 कहने की जरूरत नहीं है कि सपा और अखिलेश यादव को ऐतिहासिक अवसर मिला है. वे अगर मुलायम सिंह यादव के बेटे नहीं होते तो शायद ही यह मौका उन्हें मिलता. पर याद रहे, इतिहास में ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते हैं. उनके नेतृत्व की असली परीक्षा अब शुरू हो रही है. 

('नया इंडिया' में १२ मार्च को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)                  

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