मंगलवार, अगस्त 31, 2010

हाशिए की आवाजें

समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों पर भारतीय समाज की मुख्यधारा के सभी चरित्र किसी न किसी रूप में कमबेशी दिख ही जाते हैं- चाहे वे नेता हों या अभिनेता, या फिर नायक-नायिकाएं या खलनायक या अफसर-पुलिस, अपराधी-भ्रष्टाचारी, व्यापारी, साधु-संत आदि-आदि. आजकल मुहावरे की तरह इस्तेमाल होनेवाला ‘आम आदमी’ भी वहां दिख जाता है. तात्पर्य यह कि शायद ही कोई छूटा हो. यहां तक कि भूत-प्रेत, एलियंस, कुत्ते-बिल्लियों और दूसरे पशु-पक्षियों को भी समाचार चैनलों पर अच्छा-खासा समय मिल जाता है. लेकिन यही बात देश के उन करोड़ों दलितों और आदिवासियों के बारे में नहीं कही जा सकती है जो आज भी चैनलों के लिए एलियंस और भूत-प्रेतों से भी ज्यादा गुमनाम बने हुए हैं.

आश्चर्य नहीं कि हमारे ‘सबसे तेज’ और आपको ‘आगे रखनेवाले’ चैनलों से लेकर ‘खबर हर कीमत पर’ देने का दावा करनेवाले लगभग एक दर्जन से अधिक चैनलों पर या तो वे बिलकुल नहीं दिखते हैं या फिर कभी-कभार छोटे-मोटे अपराधों में शामिल अपराधियों और कभी सामंती-पुलिसिया उत्पीड़न के निरीह शिकारों की तरह दिख जाते हैं. आदिवासियों को तो वास्तव में एलियंस की तरह ही ट्रीट किया जाता है जो चैनलों पर कभी-कभार किसी दूसरे ग्रह के नागरिक की तरह सुदूर जंगलों में घूमते दिख जाते हैं.

जाहिर है कि दलितों-आदिवासियों के चित्रण में एक खास तरह का स्टीरियोटाईप हावी रहता है. आमतौर पर दलितों-आदिवासियों को समाचार चैनलों पर सेलिब्रेटेड ‘आम आदमी’ से भी कई पायदान नीचे गरीब, पीड़ित, बीमारी-भूखमरी, बलात्कार और हिंसा के शिकार निरीह प्राणियों या अपराधियों या फिर सीधे राज्यसत्ता को चुनौती देते बागियों (नक्सलियों/माओवादियों) की तरह पेश किया जाता है. गोया ‘आम आदमियों’ की तरह दलित–आदिवासी पढ़ते-लिखते नहीं, नौकरी-चाकरी नहीं करते, प्रेम-शादी-विवाह नहीं करते, घूमते-फिरते नहीं, नाचते-गाते नहीं, शापिंग माल्स में खाते-पीते-खरीददारी नहीं करते और पर्व-त्यौहार नहीं मनाते.

ऐसे में, अगर कभी इस स्टीरियो-टाईप छवि को तोड़ते हुए इनमें से कोई मायावती या शिबू सोरेन जैसा निकल आये तो चैनलों के लिए वह एक चमत्कार होता है जिसे वे कुछ हैरत, कुछ झिझक और कुछ घृणा के मिलेजुले भाव के साथ दिखाते हैं. चैनलों को देखकर ऐसा लगता है कि वे न सिर्फ दलित-आदिवासी समुदाय के उभरते हुए मध्यवर्ग और उसकी आकांक्षाओं से पूरी तरह से अपरिचित हैं बल्कि उन्हें अपने हक के लिए सजग और लड़ने-मरने को तैयार दलित-आदिवासी भी नहीं दिख रहे हैं. यही कारण है कि हमारे समाचार चैनलों पर दलितों-आदिवासियों की वे बहुरंगी छवियां नहीं दिखाई पड़ती हैं जो किसी भी जीवंत और अपने सम्मान-पहचान और हकों के लिए लड़ और बढ़ रहे समुदायों की निशानी होती है.

निश्चय ही, चैनलों पर दलितों-आदिवासियों की वास्तविक छवियों की अनुपस्थिति की एक बड़ी वजह खुद न्यूजरूम में दलित-आदिवासी पत्रकारों-संपादकों की अत्यंत विरल या न के बराबर मौजूदगी है. यह समूचे भारतीय समाचार मीडिया के साथ-साथ चैनलों की भी सबसे बड़ी ‘लोकतान्त्रिक कमियों’ (डेमोक्रेटिक डेफिसिट) में से एक है. खुद चैनलों की लच्छेदार भाषा में कहें तो आज़ादी के ६३ सालों बाद भी हमारे जनसंचार माध्यमों के समाचार कक्षों में देश की कुल आबादी के २३ प्रतिशत हिस्से की भागीदारी ५ प्रतिशत से भी कम है.

लाख टके का सवाल है कि क्या चैनलों के न्यूजरूम में दलितों-आदिवासियों की संख्या बढ़ने और उन्हें निर्णय लेनेवाले पदों पर बैठाने से उन समुदायों की वास्तविक तस्वीर पेश करने में कोई मदद मिलेगी? जवाब है- हां. इसके सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं एन.डी.टी.वी-इंडिया के रवीश कुमार. अगर यह कहूं तो शायद गलत नहीं होगा कि वे इस समय हिंदी समाचार चैनलों की छोटी सी दुनिया में कुछ सबसे संवेदनशील, संजीदा, साहसी और चैनलों की मुख्यधारा से परे हमेशा कुछ नया करने के लिए बेचैन पत्रकारों में से एक हैं. रवीश रूटीन ‘खबरों’ और ब्रेकिंग न्यूज धुन पर नाचनेवाले पत्रकारों में से नहीं हैं. यही उनकी पहचान भी है और शक्ति भी.

पिछले दो-तीन वर्षों में रवीश ने अपनी विशेष रिपोर्टों से हिंदी की टी.वी पत्रकारिता को बेहतर बनाया है. इन रिपोर्टों की सबसे खास बात यह है कि उनमें आप वंचित समुदायों खासकर दलित मध्यमवर्ग और उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और संघर्षों-उपलब्धियों को मुखरित होते हुए देख सकते हैं. चाहे वह हाल में पंजाब के लुधियाना में दलित समुदाय के बीच नए उभार और उसकी अभिव्यक्ति में जातिसूचक पहचान के साथ बन और बज रहे गीतों पर तैयार रिपोर्ट हो या उससे पहले दलित समुदाय के बीच से बड़ी ख़ामोशी से उभर रहे उद्योगपति-बिजनेसमैन तबके की कथा या ऐसी ही और दर्जनों रिपोर्टें जिनसे दलित समुदाय की कशमकश का पता चलता है, रवीश को मौजूदा दौर में इस समुदाय के सबसे महत्वपूर्ण आख्यानकर्ताओं (क्रानिकलरों) में से एक बनाती है.

वास्तव में, रवीश का होना सिर्फ हिंदी ही नहीं समूची पत्रकारिता के उस ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ को कुछ हद तक कम करता है जो अपनी इस कमी के कारण खुद से लड़ते, बढ़ते और बदलते भारत की नब्ज को पकड़ पाने में बार-बार नाकामयाब हो रहा है. कहने की जरूरत नहीं कि हमें एक नहीं, ऐसे दर्जनों रवीश कुमारों की जरूरत है. और हां, एक आदिवासी रवीश कुमार की कमी तो बहुत दिनों से खल रही है. कोई सुन रहा है?

(तहलका, १५ जुलाई'१०)

बुधवार, अगस्त 25, 2010

आक्टोपसी चंगुल में चैनल




स्पेन ने फुटबाल विश्वकप भले ही कलात्मक और बेहतर खेल के कारण जीता हो लेकिन अपने खबरिया चैनल इसका श्रेय उसे देने के लिए तैयार नहीं हैं. चैनलों की मानें तो स्पेन की जीत का असली क्रेडिट पाल नाम के एक आक्टोपस को जाता है जिसने मैच से पहले ही उसकी ‘भविष्यवाणी’ कर दी थी. चैनलों के मुताबिक इस बार फुटबाल विश्वकप का असली हीरो आक्टोपस पाल है जिसने कई प्रमुख मैचों के बारे में बिलकुल सटीक ‘भविष्यवाणियां’ की. खासकर जर्मनी के मैचों और सेमीफाइनल और फ़ाइनल मैच के नतीजों को लेकर की गई उसकी सभी सात ‘भविष्यवाणियां’ सही निकलीं.

बस, अपने खबरिया चैनलों को और क्या चाहिए था? हमेशा कुछ अजीबोगरीब और चमत्कारिक तमाशे की तलाश में लगे रहनेवाले चैनलों के लिए इतना काफी था. तेज तारों, तीन देवियों, ग्रहों-ग्रहणों, नक्षत्रों, ज्योतिषियों और बाबाओं से अटे पड़े चैनलों पर ‘बाबा’ आक्टोपस पाल को छाते देर नहीं लगी. उसके अहर्निश महिमागान में कोई चैनल पीछे नहीं रहा. आश्चर्य नहीं कि नियमित और प्राइम टाइम बुलेटिनों से लेकर आधा घंटे के विशेष कार्यक्रमों में जितना समय फुटबाल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टों को मिला, उससे कम एयरटाइम आक्टोपस पाल के करिश्माई खेल को नहीं मिला. कुछ इस हद तक कि मैच सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गए जो पाल की भविष्यवाणी को सही साबित करने के लिए हो रहे हों.

जाहिर है कि ऐसा करते हुए खबरिया चैनलों ने सामान्य बुद्धि, तर्क और विवेक को ताखे पर रख दिया. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है. लेकिन चैनल आक्टोपस पाल के चंगुल में जिस तरह से फंसे, उससे साफ है कि तर्क और बुद्धि से उनकी दुश्मनी अब काफी पुरानी और गहरी हो चुकी है. अफसोस की बात यह है कि चैनलों के इस अतार्किक और बुद्धिविरोधी रवैये का असर फुटबाल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टिंग पर भी पड़े बिना नहीं रह पाया. अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की फुटबाल विश्वकप में वैसी दिलचस्पी नहीं थी, जैसीकि क्रिकेट के ऐरे-गैरे चैम्पियनशिप को लेकर दिखती है. रही-सही कसर आक्टोपस पाल ने निकल दी. चैनलों ने काफी हद तक कमजोर रिपोर्टिंग की भरपाई आक्टोपस पाल के चमत्कारों को दिखाकर पूरी करने की कोशिश की.

नतीजा, एक ऐसा तमाशा जिसने फुटबाल जैसे शानदार खेल के विश्वकप को काफी हद तक मजाक में बदल दिया. वैसे, टी.वी ने फुटबाल ही नहीं, लगभग सभी खेलों को पहले ही तमाशे में बदल दिया है जहां खेल अब सिर्फ खेल नहीं रह गए हैं. वे टी.वी के लिए खेले जाते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनमें खेलों की सामूहिकता, सहभागिता और मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा की भावना के बजाय तमाशे, तड़क-भड़क और उन्माद का बोलबाला काफी बढ़ गया है. यह टी.वी के स्वभाव के अनुकूल है क्योंकि उसकी दिलचस्पी खेल से ज्यादा खेल के तमाशे और उसकी नाटकीयता में है. ऐसे में, अन्धविश्वास और टोने-टोटके कहाँ पीछे रहनेवाले थे.

असल में, आक्टोपस पाल टी.वी की रचना या पैदाइश है. यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप और दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया में आक्टोपस पाल छाया रहा. टी.वी चैनलों को आक्टोपस पाल इसलिए चाहिए क्योंकि वह अपनी नाटकीयता से अधिक से अधिक दर्शक खींचता है. चैनल को दर्शक चाहिए. इसलिए कि चैनलों की टी.आर.पी दर्शकों की संख्या पर निर्भर करती है. टी.आर.पी से विज्ञापन आता है और विज्ञापन से मुनाफा होता है. चैनलों को मुनाफा चाहिए और मुनाफे के लिए जरूरी है कि दर्शकों को आक्टोपसी चंगुल में फंसाए रहा जाए, चाहे वह अंधविश्वासों का ही क्यों न हो?

सवाल है कि दर्शक इन्हें क्यों देखते हैं? इसके मुख्यतः दो कारण हैं. पहला कारण यह है कि इनमें एक खास तरह का अनोखापन या अजीबोगरीबपन है. आमतौर पर अजीबोगरीब चीजें ध्यान खींचती हैं. यही कारण है कि चैनलों पर अजीबोगरीब चीजें खूब दिखाई जाती हैं. कुछ खबरिया चैनल तो इसी विधा के विशेषज्ञ हो गए हैं. आक्टोपस अपने आप में काफी अजीबोगरीब जीव है, ऊपर से अगर उसे भविष्यवक्ता बना दिया जाए तो उत्सुकता स्वाभाविक है. लेकिन दूसरा कारण ज्यादा महत्वपूर्ण और गहरा है. आक्टोपस पाल एक आदमी के अंदर बैठे अनजान के भय, आशंकाओं और चिन्ताओं को भुनाने के लिए पैदा होता है, उसीपर पलता और फलता-फूलता है. ज्योतिष और भविष्यवाणियों का जन्म भी इसी ‘अनजान के भय’ से हुआ है. ज्योतिष और उसकी भविष्यवाणियां लोगों को कुछ हद तक इसी ‘अनजान के भय’ से राहत देने का आभास पैदा करती हैं.

खबरिया चैनल हर आदमी के अंदर बैठे इसी ‘अनजान के भय’ का दोहन करते हैं. आक्टोपस पाल भी इसी दोहन के मकसद से भविष्यवक्ता बना दिया गया. और चैनलों ने क्या दूहा, विश्वकप फीका पड़ गया. हैरानी नहीं होगी, अगर जल्दी ही अपने खबरिया चैनल कोई देशी तोता, बिल्ली, बन्दर, गाय या हाथी खोज लाएं.

मंगलवार, अगस्त 24, 2010

आनर किलिंग या डिसआनर/हारर किलिंग या फिर कस्टोडियल किलिंग?

परिवार की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद से प्रेम और शादी करनेवाले युवा जोड़ों खासकर लड़कियों की कथित “आनर किलिंग” की खबरें इन दिनों अख़बारों और चैनलों में सुर्ख़ियों में हैं. हालांकि देश के कई हिस्सों खासकर उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में अंतर्जातीय या समान गोत्र प्रेम विवाहों के खिलाफ परिवार/जाति/गोत्र/ की इज्जत बचाने के नाम पर युवा जोड़ों की नृशंस हत्याओं का सिलसिला नया नहीं है लेकिन जिस तरह से यह सामाजिक रोग कैंसर की तरह देश की राजधानी और दूसरे बड़े शहरों और उनके पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय परिवारों तक को अपनी चपेट में ले रहा है, उसे देखते हुए मीडिया की सक्रियता ना सिर्फ स्वाभाविक है बल्कि जरूरी भी है.

यह इसलिए भी जरूरी है कि कथित “आनर किलिंग” के बहुतेरे मामलों में परिवार, पड़ोसियों और पुलिस की तरह मीडिया भी मामले की लीपापोती और हत्यारों को बचाने में जुट जाता है. जाहिर है कि मीडिया भी सामाजिक पूर्वाग्रहों और झुकावों से परे नहीं है. परिवारों के कहर से बचने के लिए युवा प्रेमियों के घर से पलायन के मामलों को सिर्फ पुलिस और कोर्ट ही नहीं बल्कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी जिस असंवेदनशील तरीके से ‘युवाओं के बिगड़ने’ और ‘अनैतिक, अनुचित और परंपरा विरुद्ध’ काम के बतौर रिपोर्ट करता है, वह किसी से छुपा नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन मामलों में सरकार, पुलिस, कोर्ट और नागरिक समाज के साथ-साथ अगर समाचार मीडिया भी और प्रो-एक्टिव होता तो शायद मोनिका-कुलदीपों जैसे कई मासूम युवा जोड़ों की जान बचाई जा सकती थी.

निश्चय ही, मीडिया से यह अपेक्षा रखना गलत नहीं है कि वह कथित “आनर किलिंग” की घटनाओं को सिर्फ एक और सनसनीखेज ‘घटना’ की तरह देखने और वहीँ तक सीमित करने के बजाय एक गहरी सामाजिक बीमारी और उससे जुड़ी ‘प्रक्रिया’ के रूप में समझने और उठाने की कोशिश करे. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस मामले में सरकार, राजनीतिक दलों, सामाजिक-नागरिक संगठनों, पुलिस और कोर्ट को और अधिक संवेदनशील बनाने और उन्हें गहरी नींद से जगाने के लिए मीडिया की सक्रियता एक अनिवार्य शर्त सी बन गई है. यही नहीं, मीडिया इस मामले में जन जागरूकता फ़ैलाने के जरिये एक बड़े सामाजिक सुधार की नीव भी रख सकता है.

लेकिन इसके लिए जरूरी है कि मीडिया अपने अंदर भी झांके. इस सिलसिले में, समाचार मीडिया को राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास की इस अपील पर जरूर गौर करना चाहिए कि उसे ऐसी जघन्य हत्याओं को “आनर किलिंग” कहने से परहेज करना चाहिए क्योंकि इससे हत्यारों का एक तरह से महिमामंडन होता है. निश्चय ही, उनकी अपील में भावुकता से अधिक एक तर्क है. नारीवादी विचारक और संगठन लंबे अरसे से “आनर किलिंग” शब्द के इस्तेमाल के विरोधी रहे हैं. उनका तर्क है कि इन हत्याओं में ‘आनर’ की क्या बात है? उनकी शिकायत है कि इस शब्द के इस्तेमाल से उन हत्याओं को एक तरह की सामाजिक वैधता मिलती दिखती है जो परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर की जाती हैं लेकिन वास्तव में, सामंती-पुरुषसत्तात्मक ढांचे में स्त्री यौनिकता को नियंत्रित करने का एक बर्बर औजार भर हैं.

सवाल यह है कि फिर ऐसी हत्याओं को क्या कहा जाए? यह सिर्फ एक और हत्या भर नहीं हैं. यह महिला विरोधी हिंसा है लेकिन इसे महिला विरोधी या घरेलू हिंसा कहने से भी बात नहीं बनेगी. मीडिया की यह एक जेनुइन समस्या है. कुछ महिला संगठनों की नेताओं के मुताबिक यह ‘हारर किलिंग’ है जबकि कुछ अन्य लोगों का कहना है कि इसे ‘डिस-आनर किलिंग’ कहा जाना चाहिए. कुछ चैनलों ने गाहे-बगाहे इसे ‘हारर किलिंग’ कहना शुरू भी कर दिया है. लेकिन यह कोई बेहतर विकल्प नहीं है. जाहिर है कि अख़बारों और चैनलों के बीच किसी उपयुक्त विकल्प को लेकर एक आम समझ और सहमति बननी बाकी है जिसके अभाव में अभी भी धड़ल्ले से “आनर किलिंग” शब्द का प्रयोग किया जा रहा है. लेकिन इसे जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना अच्छा होगा.

इस सिलसिले में, जानी-मानी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती का कहना है कि इसे ‘कस्टोडियल किलिंग’ कहा जाना चाहिए क्योंकि सामंती-धार्मिक पुरुषसत्तात्मक समाज के नियमों के मुताबिक स्त्री हमेशा किसी ना किसी पुरुष की कस्टडी में रहती है. विवाह से पूर्व पिता और भाई, विवाह के बाद पति और पति की मौत के बाद बेटे की कस्टडी में और जैसे ही वह इस कस्टडी को चुनौती देने या तोड़ने की कोशिश करती है, समाज-परिवार की परंपरा की रक्षा के नाम पर पुरुष सदस्यों को उसकी हत्या तक करने में हिचक नहीं होती है. फिर क्या इसे ‘कस्टोडियल किलिंग’ कहा जाना चाहिए? निश्चय ही, इसमें ‘आनर’ के बजाय एक शर्म और अपराध का भाव शामिल है. और कुछ नहीं तो इसे ‘डिसआनर किलिंग’ तो तत्काल कहना शुरू कर देना चाहिए.

यह कुछ लोगों को अटपटा जरूर लग सकता है लेकिन क्या “आनर किलिंग” इससे ज्यादा अटपटा और चुभनेवाला शब्द नहीं है?

(मीडिया स्तम्भ, दैनिक हिंदुस्तान)

शनिवार, अगस्त 21, 2010

खुली अर्थव्यवस्था और बंद समाज के बीच मारे जाने के लिए अभिशप्त स्त्री और उसका प्रेम

निरुपमा की मौत ने कई बहुत गंभीर और असुविधाजनक सवाल खड़े कर दिये हैं. सवाल है कि क्या उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्री होना और प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह हो गया है? क्या एक तेजी से दौडती और भूमंडलीकृत होती अर्थव्यवस्था के बीच भारतीय समाज और बंद, दकियानूसी, अंतर्मुखी और प्रतिक्रियावादी होता जा रहा है? क्या एक भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था खासकर सेवा क्षेत्र में जहां श्रम-शक्ति में महिला कर्मियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, वहां कामकाजी महिलाओं को परिवार, जाति, गोत्र, धर्म और उसके दायरे से बाहर निकलकर प्रेम/विवाह करने की सजा लगातार और हिंसक-बर्बर हो रही है? क्या भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा कामकाजी स्त्री को उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और पहचान के वास्ते लिए गए फैसलों के कारण बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है? क्या स्त्री को लेकर भारतीय समाज के बड़े हिस्से यहां तक कि कथित तौर पर पढ़े-लिखे लोगों का नजरिया भी कथित सनातनी-नैतिकतावादी-परम्परावादी-पुरुषसत्तात्मक दायरे से बाहर निकलने के बजाय और उग्र-हिंसक होता जा रहा है?

ये और इस जैसे कई सवाल बहुत से लोगों को अतिरेकपूर्ण लग सकते हैं. ऐसे कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि स्त्री या उसके अंतर्जातीय-अंतरधार्मिक प्रेम को लेकर समाज का पारंपरिक नजरिया बदला है. ऐसी शादियों की लगातार बढ़ती संख्या और उसे समाज के एक हिस्से की स्वीकृति से थोड़ी देर के लिए ऐसा भ्रम होता है कि समाज बदल रहा है. लेकिन तब पिछले कुछ वर्षों और महीनों में जिस तरह से संगठित तौर पर खाप पंचायतों से लेकर मनसे-श्रीराम सेने-बजरंग दल जैसे प्रतिक्रियावादी-हिंसक सांप्रदायिक संगठनों और मध्यम-उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों से लेकर पुलिस-प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया तक सबने जिस तरह से नैतिकता, संस्कार, परम्पराओं, परिवार, जाति, गोत्र और धर्म की “इज्जत” के नाम पर प्रेम करनेवालों खासकर स्त्रियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है, उसकी व्याख्या कैसे की जाए?

क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि जो हरियाणा देश के सबसे संपन्न राज्यों में से एक है और जिसे नई अर्थव्यवस्था का भारी लाभ मिला है, वहां खाप पंचायतें युवा प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के बर्बर फैसले और हिंदू विवाह कानून में संशोधन की मांग कर रही हैं और उसे आई.एन.एल.डी के ओम प्रकाश चौटाला और कांग्रेस के युवा ब्रिगेड के सांसद नवीन जिंदल समेत राज्य सरकार का भी परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है? क्या यह भी सिर्फ एक संयोग है कि उदारीकरण का सबसे अधिक फायदा उठानेवाले तथाकथित खाते-पीते और पढ़े-लिखे मध्यम और उच्च-मध्यमवर्गीय लोगों के बीच कन्या भ्रूण हत्या सबसे अधिक हो रही है? आखिर दक्षिण दिल्ली जैसे पाश इलाकों और पंजाब और हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों में आबादी में महिलाओं के घटते अनुपात का क्या मतलब लगाया जाए?

साफ है कि अर्थव्यवस्था के खुलने और वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुडने के बावजूद समाज व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर उस तरह से नहीं खुल रहा है जैसे अर्थव्यवस्था. उलटे ऐसा लगता है कि वह और ज्यादा बंद, अनुदार, आक्रामक और हिंसक होता जा रहा है खासकर स्त्री को लेकर. क्या इसकी एक वजह यह है कि इस नई उदार और ग्लोबलाइज्ड अर्थव्यवस्था में कानूनी-गैरकानूनी तरीकों से अनाप-शनाप पैसा कमाने और खर्चने में जुटे मध्य और उच्चमध्य वर्ग को घर से बाहर निकलकर कमाने के लिहाज से स्त्री की आर्थिक उपयोगिता तो दिख रही है लेकिन उसका परिवार/गोत्र/जाति/धर्म/परंपरा के “काबू से बाहर” जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा है? क्या यह नई अर्थव्यवस्था और मध्ययुगीन समाज का गठजोड़ है जो स्त्री की बढ़ती आर्थिक भूमिका के बावजूद उसे परंपरा और नैतिकता के नाम पर परिवार, जाति, गोत्र, संप्रदाय और धर्म की कैद से बाहर निकलने देने के लिए तैयार नहीं है?

निश्चय ही, ऐसा लगता है कि स्त्री को लेकर जो कथित सनातनी पुरुषसत्तात्मक सोच है, वह उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और फैसलों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. इस सनातनी कैद में स्त्री को हमेशा परिवार और उसमें भी किसी ना किसी पुरुष के नियंत्रण में रहना जरूरी है- पहले, बेटी के रूप में पिता, फिर पत्नी के रूप में पति और फिर वृद्धा माँ के रूप में बेटे के नियंत्रण में. यह सनातनी कैद किसी एक धर्म, समुदाय, जाति या वर्ग तक सीमित नहीं है. यही कारण है कि इस कैद से बाहर निकलने की स्त्री की कोशिशों को बिना किसी अपवाद के लगभग सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और वर्गों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है.

पुरुषसत्तात्मक परिवार का यह प्रतिरोध पहले भी अत्यधिक हिंसक और बर्बर था. लेकिन २१ वीं सदी के पहले दशक में सीमित ही सही, स्त्री की स्वतंत्रता को मान्यता देनेवाले आधुनिक संविधान और कानूनों के बावजूद निरुपमा, मनोज-बबली, रिजवानुर जैसों को अपने स्वतंत्र चुनाव और प्रेम करने की सजा मौत के रूप में मिल रही है. ऐसे में, स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ रहा है कि व्यक्ति स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष बराबरी जैसे दावों के बावजूद क्या नव उदारवादी पूंजीवाद बड़े प्रेम से सामंतवाद के गले में गलबहियां डाले प्रेम की राह में डंडा लिए नहीं खड़ा है? असल में, नया पूंजीवाद स्त्री को आर्थिक तौर पर श्रमशक्ति के एक हिस्से और उसके उत्पादों-सेवाओं के उपभोक्ता के बतौर सीमित स्वतंत्रता का उपभोग करने के लिए जरूर उकसाता है लेकिन उसे परिवार के दायरे से बाहर निकलकर वास्तविक स्वतंत्रता का अहसास करने की आज़ादी दे के लिए तैयार नहीं है.

यहां तक कि हाल के वर्षों में लिविंग रिलेशनशिप को जायज ठहराने से लेकर समलैंगिक संबंधों को डी-क्रिमिनालाईज करनेवाले फैसले सुनानेवाला सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों में अजीबोगरीब और प्रतिगामी दिखनेवाले फैसले करने लगता है. परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर अंतर्जातीय विवाह करनेवाली बहन के पति की हत्या करनेवाले भाई को सजा सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ इस आधार पर नरमी बरती कि उसने परिवार की इज्जत बचाने के लिए गुस्से में आकार यह हत्या कर दी जो कि ‘रेयरेस्ट आफ रेयर’ अपराध नहीं है. आश्चर्य नहीं कि कथित आनर किलिंग या अंतर्जातीय-अंतरधार्मिक प्रेम/विवाह के हिंसक विरोध के मामलों में परिवार के अलावा चाहे पड़ोसी हों या पुलिस हो या मीडिया या फिर कोर्ट सभी का रवैया उसी पुरुषसत्तात्मक सनातनी दायरे के अंदर रहता है.

जाहिर है कि आनर या फिर कस्टोडियल किलिंग की इन भयावह घटनाओं और उससे अधिक इनके खुले समर्थन से यह बात साफ हो गई है कि स्त्री की वास्तविक आज़ादी का सवाल अभी भी अधूरा है. जब तक इस सवाल को हल नहीं किया जायेगा, हम हर दिन निरुपमाओं, रिजवानुरों, मनोज-बब्लियों की हत्याएं देखने के लिए अभिशप्त रहेंगे.
(हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा )

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

कश्मीर को लेकर न्यूज कर्फ्यू

कश्मीर उबल रहा है. लोग सड़कों पर हैं. क्या नौजवान, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं और क्या बच्चे, सभी सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने में होड़ कर रहे हैं. चौबीस घंटे का कर्फ्यू भी बेमानी हो चुका है. लोगों को जान की परवाह नहीं है. पत्थर फेंकती भीड़ पर सुरक्षा बलों की गोलीबारी में पिछले दो-ढाई महीनों में कोई ५० से ज्यादा लोग, जिनमें ज्यादातर युवा हैं, मारे जा चुके हैं. एक तरह की आम सिविल नाफरमानी का माहौल है. लगता नहीं है कि वहां राज्य या केन्द्र की सत्ता का कोई इकबाल रह गया है, लगभग खुले विद्रोह की स्थिति है. सबसे खास बात कि नौजवान बंदूक के बजाय अब पत्थर से अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. लोगों के नारों में ‘आज़ादी’ की मांग के हक में आवाजें और तेज हो गई हैं.

सचमुच, कश्मीर में हालात दिन-पर-दिन खराब होते जा रहे हैं. लेकिन अगर आप खबरों के लिए केवल अपने खबरिया खासकर हिंदी न्यूज चैनल देखते हों तो संभव है कि कश्मीर के मौजूदा हालात का उपरोक्त चित्रण आपको स्थिति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया या चौंकानेवाला या फिर ‘पाकिस्तान की कोई नई साजिश’ लगे. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. इसमें आपकी कोई गलती भी नहीं है. आपको उतनी ही जानकारी है, जितना न्यूज चैनलों ने बताया-दिखाया है. हालांकि इस मामले में न्यूज चैनल अकेले नहीं हैं, कमोबेश अख़बारों का भी यही हाल है.

लगता है जैसे कश्मीर के मामले में चैनलों में किसी अदृश्य और अघोषित सहमति के साथ एक सेल्फ सेंसरशिप काम कर रही है. लगभग एक तरह का न्यूज कर्फ्यू सा मालूम होता है. नतीजा, सभी खबरिया चैनल कश्मीर की सच्चाई से उसी तरह आँख चुराने की कोशिश कर रहे हैं जैसे राजनीतिक रूप से यू.पी.ए सरकार कर रही है. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की कश्मीर की मौजूदा स्थिति में कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं पड़ती है. कश्मीर की लगातार बिगडती और विस्फोटक होती स्थिति के बावजूद उन्हें यह इतनी बड़ी खबर नहीं दिखाई देती, जिसे कभी-कभार हेडलाइन्स में ले लेने और कभी चलते-चलाते किसी भी अन्य खबर की तरह बुलेटिन में दिखा देने से अधिक कुछ किया जाए. वहां स्टार रिपोर्टरों की टीम भेजने और उसे प्राइम टाइम में ‘तानने’ का तो सवाल ही बहुत दूर है. उल्टे एक तरह से हिंदी चैनलों के दृश्यपटल से कश्मीर काफी हद तक ब्लैक आउट है.

संभव है कि इसकी एक वजह यह भी हो कि कश्मीर में एक भी टी.आर.पी मीटर नहीं लगा है. न्यूज चैनल कहते भी रहे हैं कि जहां हमारे दर्शक नहीं, वहां हमारी दिलचस्पी नहीं. इसलिए कश्मीर जलता भी रहे तो क्या? जाहिर है कि टी.आर.पी के मारे चैनलों के लिए उससे भी बड़े कई गम हैं. उन्हें ‘डांस इंडिया डांस’, ‘लिटल चैम्प्स’ और राहुल महाजन जैसों से फुर्सत कहां हैं? उनके न्यूज जजमेंट में आम तौर पर कश्मीर की मौजूदा स्थिति से बड़ी खबर दिल्ली की बारिश और उससे लगा जाम या लौकी के जूस से कोई मौत या फिर ऐसी ही कोई ‘खबर’ होती है.

मीडिया की इसी प्रवृत्ति को लक्षित करते हुए शायद जार्ज बर्नार्ड शा ने कभी कहा था कि अखबार (अब चैनल भी) एक साईकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम मालूम होते हैं. ऐसा लगता है कि अपने खबरिया चैनल भी दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद की बारिश-जलभराव से जाम या लौकी के जूस से हुई एक मौत और कश्मीर की निरंतर गहराती त्रासदी के बीच फर्क करने में अक्षम हो गए हैं. लेकिन बात सिर्फ यही नहीं है. कश्मीर के मामले में यह वास्तव में एक ‘साजिश भरी चुप्पी’ (कांसपिरेसी आफ साइलेंस) का भी मामला लगता है.

आखिर सवाल देशभक्ति का है. ऐसा लगता है कि अधिकांश खबरिया चैनलों को डर लगता है कि अगर कश्मीर की असलियत को दिखाया गया तो इसका फायदा देश-विरोधी अलगाववादी शक्तियां उठाएंगी. कश्मीर को लेकर जारी प्रोपेगंडा युद्ध में पाकिस्तान इसे सबूत की तरह पेश करेगा. यह एक ऐसा डर है जिसके जवाब में चैनलों की ‘देशभक्ति’ जग जाती है. नतीजा यह कि अधिकांश चैनल खुद भी एक तरह के प्रोपेगंडा युद्ध में शामिल हो गए हैं. वे साबित करने पर तुले हैं कि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह “ पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों और लश्कर-ए-तैय्यबा जैसे आतंकवादी-अलगाववादी संगठनों के भड़कावे और भाड़े पर हो रहा है, कुछ गुमराह और बेरोजगार नौजवान २०० रूपये के डेली वेज पर पत्थर फेंक रहे हैं, यह पूरी समस्या सिर्फ कुछ इलाकों (खरी बात कहनेवाले विनोद दुआ के शब्दों में सिर्फ ५० किलोमीटर) तक सीमित है.” ठीक इसी तर्ज पर कश्मीर पर होनेवाली बहसों में भी चर्चा बहुत सीमित दायरे में होती है.

हालांकि सबको पता है कि ये सच नहीं है या पूरा सच नहीं है. लेकिन कोई सच स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. सभी उसे दबाने में लगे हुए हैं. गोया उनके दबाने से सच दब जायेगा? कश्मीर में सच तो नहीं दब रहा है, अलबत्ता उसे दबाने की कोशिश में कश्मीर के हालात और बिगडते जा रहे हैं. चैनलों की ऐसी रिपोर्टिंग और सीमित बहसों से कश्मीर को लेकर देश में जो जनमत बनता है, उसमें कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर कोई वैकल्पिक और साहसिक पहल और हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाती है. साफ है कि कश्मीर में न्यूज मीडिया समाधान का नहीं समस्या का हिस्सा बना हुआ है. न्यूज कर्फ्यू से समस्या सुलझ नहीं, और उलझ रही है. नतीजा, कश्मीर में सच एक नासूर की तरह लगातार बह और दर्द दे रहा है.
(तहलका' ३१ अगस्त'१०)

बुधवार, अगस्त 11, 2010

देश चलाने का मुगालता

इधर टी.वी चैनलों के कुछ संपादक-पत्रकारों को यह भ्रम हो गया है कि वही देश चला रहे हैं. उन्हें यह भी भ्रम है कि वे जैसे चाहेंगे, देश वैसे ही चलेगा या उसे वैसे ही चलना चाहिए. हालांकि पत्रकारों में यह भ्रम कोई नई बात नहीं है. कुछ वर्षों पहले एक बड़े अंग्रेजी अखबार के संपादक ने अपनी हैसियत का बखान करते हुए दावा किया था कि दिल्ली में प्रधानमंत्री के बाद सबसे ताकतवर कुर्सी उन्हीं की है. लेकिन नई बात यह है कि टी.वी चैनलों के कई पत्रकारों को यह मुगालता कुछ ज्यादा ही होने लगा है.


यही नहीं, इनमें से कई टी.वी चैनलों के संपादक-पत्रकार अपने को प्रधानमंत्री से भी ताकतवर मानने लगे हैं. कुछ तो खुद को कानून, न्याय प्रक्रिया, संविधान आदि से भी ऊपर मान बैठे हैं. वे देश को अपनी मर्जी से चलाना चाहते हैं. वे खुद के चेहरे, आवाज़ और विचारों से इस हद तक आत्ममुग्ध हैं कि वे माने-ठाने बैठे हैं कि देश उनकी तरह ही सोचे, बोले, देखे और सुने. इसके लिए वे हर रात प्राइम टाइम पर अपनी कचहरी लगाकर बैठ जाते हैं जहां फैसले पहले से तय होते हैं और बहस सिर्फ उसकी पुष्टि और दर्शकों के मनोरंजन के लिए होती है.


लेकिन भ्रम, भ्रम है. वह सच नहीं हो सकता है. समाचार चैनलों के भारी राजनीतिक-सामाजिक प्रभाव के बावजूद सच यह है कि चैनल या उनके संपादक-पत्रकारों के कहे मुताबिक देश नहीं चल रहा है और न ही वे देश चला रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह तथ्य इन आत्ममुग्ध संपादक-पत्रकारों को नहीं मालूम है. वे हकीकत से अच्छी तरह से वाकिफ हैं. लेकिन वे इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. इसके कारण उनमें से अधिकांश में एक खास तरह की जिद, आक्रामकता, घमंड और बड़बोलापन आ गया है. नतीजा- वे सुनते नहीं, सिर्फ बोलते हैं. बहस नहीं करते, सिर्फ फैसला सुनाते हैं और संवाद नहीं, एकालाप करते हैं.

ऐसे ही एक टी.वी संपादक-पत्रकारों के शिरोमणि हैं- अंग्रेजी समाचार चैनल ‘टाइम्स नाउ’ के संपादक अर्णब गोस्वामी. उन्हें भी यह मुगालता है कि देश वही चला रहे हैं. वे इसे अपना हक मानते हैं क्योंकि उन्हें यह भी भ्रम है कि देश उन्हीं की तरह सोचता, बोलता और सुनता है. उनका यह मुगालता जिद की हद तक पहुंच चुका है. इस जिद से निकली आक्रामकता उनकी सबसे बड़ी पहचान बन चुकी है. असल में, उनकी एंकरिंग की सबसे बड़ी ‘खूबी’ उनकी इसी आक्रामकता को माना जाता है जो बड़बोलेपन की सीमा को कब का पार कर चुकी है. इसी से जुडी अर्णब की दूसरी सबसे बड़ी ‘खूबी’ यह है कि अपने आगे वे किसी की नहीं सुनते हैं. इस मामले में उनके सवालों, तर्कों और तथ्यों का कोई जवाब हो या नहीं हो लेकिन उनके फेफड़ों का कोई जवाब नहीं है.

निश्चय ही, टी.वी समाचार चैनलों के लिए थोक के भाव बंटनेवाले पुरस्कारों में सबसे ताकतवर फेफड़े का पुरस्कार तीखी प्रतियोगिता के बावजूद निर्विवाद रूप से अर्णब गोस्वामी को मिलना चाहिए. उनकी आत्ममुग्धता का आलम यह है कि हर रात प्राइम टाइम पर कभी एक घंटे, कभी डेढ़ और कभी दो घंटे तक कथित तौर पर ‘देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों’ पर अपने चुनिन्दा अतिथियों के साथ चर्चा में ६० प्रतिशत समय टी.वी स्क्रीन पर खुद ही बोलते या दीखते हैं. अर्णब की इन प्राइम टाइम चर्चाओं की सबसे खास बात यह है कि उनके कुछ सबसे प्रिय विषय और प्रिय अतिथि हैं जो घूम-फिरकर हर दूसरे-तीसरे-चौथे दिन चैनल पर आ जाते हैं.

इन विषयों में अर्णब का सबसे प्रिय और सदाबहार विषय है- पाकिस्तान-आतंकवाद. कहने की जरूरत नहीं है कि अर्णब पाकिस्तान और आतंकवाद को एक-दूसरे का पर्याय मानते हैं. आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान और आतंकवाद पर होनेवाली उनकी सभी बहसों का निष्कर्ष बिना किसी अपवाद के एक ही होता है- पाकिस्तान एक दुष्ट और विफल (फेल्ड) राष्ट्र है, इस्लामी आतंकवाद की धुरी और निर्यातक देश है, तालिबान और अल-कायदा उसे चला रहे हैं और भारत को उससे बात करने के बजाय उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. मुंबई में २६/११ के आतंकवादी हमलों के बाद अर्णब का यह अंध पाकिस्तान विरोध युद्धोन्माद भड़काने तक पहुंच गया था.

अगर देश सचमुच उनके कहे मुताबिक चला होता तो अब तक पाकिस्तान के साथ चार-पांच बार युद्ध जरूर हो चुका होता. अलबत्ता दो परमाणु हथियारों से लैस देशों के बीच इन युद्धों का नतीजा क्या होता, बताने की जरूरत नहीं है. इसी तरह, अगर देश अर्णब और उनके ‘हिज मास्टर्स वायस’ अतिथियों के कहे अनुसार चला होता तो माओवाद से लड़ने के नाम पर अब तक सेना और वायु सेना उतारी जा चुकी होती और बस्तर-दंतेवाड़ा में कारपेट बम बरसाए जा रहे होते. फिर ना जाने कितने निर्दोष लोगों का खून बहा होता?

लेकिन राहत की बात यह है कि देश इन आत्ममुग्ध टी.वी संपादक-पत्रकारों के कहे मुताबिक नहीं चल रहा है. उम्मीद करनी चाहिए कि देश आगे भी इसी तरह अपना संयम बनाये रखेगा.

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

अघोषित आपातकाल की दस्तक

मीडिया और पत्रकारों पर राज्यसत्ता, सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों और माफियाओं के बढ़ते हमले का मकसद सच को दबाना है लेकिन खुद कारपोरेट मीडिया भी सच को छुपाने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है


बीते १६ जुलाई को खुद को सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन बतानेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.आर.एस) से जुड़े सैकड़ों अराजक, गुंडे और लम्पट तत्वों की भीड़ ने समाचार चैनल ‘आजतक’ के दिल्ली स्थित दफ्तर पर हमला बोल दिया और पुलिस की मौजूदगी में जमकर तोड़फोड़ मचाया और पत्रकारों के साथ बदसलूकी की. उनकी नाराजगी की वजह यह थी कि ‘आजतक’ के सहयोगी अंग्रेजी चैनल ‘हेडलाइन्स टुडे’ ने एक स्टिंग आपरेशन के जरिये इस भगवा संगठन के कुछ बड़े नेताओं की हिंदू आतंकवादी संगठनों से सम्बन्ध दिखाने की कोशिश की थी. ठीक इसी दिन, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में शिव सेना के गुंडों ने ‘जी मराठी’ चैनल के दफ्तर में घुसकर तोड़फोड़ मचाई और पत्रकारों के साथ मारपीट की. उस समय चैनल पर कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद पर बहस चल रही थी.


हालांकि चैनलों पर ऐसे हमले नए नहीं हैं और पहले भी, देश के अलग-अलग हिस्सों में चैनलों और उनके पत्रकारों को सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों के अलावा खुद सरकार, पुलिस, माफिया, ठेकेदार और अपराधी नेता निशाना बनाते रहे हैं. लेकिन इन हमलों में नई बात यह है कि ना सिर्फ चैनलों बल्कि समूचे समाचार मीडिया और पत्रकारों को काबू में करने और सच को दबाने की एक बड़ी परियोजना का हिस्सा मालूम होते हैं. निश्चय ही, यह सिर्फ एक संयोग नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में समाचार मीडिया और खासकर पत्रकारों पर संगठित हमले बढ़े हैं. हालत किस कदर बदतर हो गए हैं, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन हमलों के असली योजनाकार न सिर्फ खुलेआम घूम रहे हैं बल्कि इन हमलों को जायज ठहराने में जुटे हुए हैं.

सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि इन हमलों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें न सिर्फ चुप और लापरवाह दिखती हैं बल्कि असली हमलावरों को बचाने की भी कोशिश कर रही हैं. इस मामले में, राजनीतिक दलों की भूमिकाएं भी संदिग्ध हैं. कृपया, उनकी दिखावटी प्रतिक्रियाओं पर मत जाइये. सच यह है कि इन हमलों को उनकी परोक्ष या मौन सहमति हासिल है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार जिस तरह से समाचार चैनलों को काबू में करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय प्रसारण प्राधिकरण (एन.बी.ए.आई) बनाने की पेशबंदी हो रही है, उससे जाहिर है कि समाचार मीडिया पर सिर्फ शारीरिक हमले ही नहीं बल्कि कानूनी हमले की भी तैयारी हो रही है.

बात यहीं नहीं खत्म हो जाती है. पिछले कुछ महीनों में खासकर आपरेशन ग्रीनहंट की शुरुआत के बाद से जिस तरह से केन्द्रीय गृह मंत्रालय और खुद गृह मंत्री ने कथित तौर पर “नक्सलियों/माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले” पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/लेखकों को सार्वजनिक रूप से डराने, धमकाने के अलावा उनके खिलाफ वैचारिक अभियान छेड रखा है, निःसंदेह, वह इसी बड़ी परियोजना का हिस्सा लगता है. यह अभियान किस स्तर तक पहुंच गया है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर छत्तीसगढ़ पुलिस ने मेधा पाटकर जैसी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, प्रो. नंदिनी सुन्दर और अरुंधती राय जैसी बुद्धिजीवी और जावेद इक़बाल जैसे पत्रकार पर खुलेआम यह आरोप लगाया कि उन्होंने एक कांग्रेस नेता की हत्या में शामिल कथित ‘माओवादी नेता’ लिंगाराम को संरक्षण दिया है. हालांकि सच यह था कि लिंगाराम भी एक आदिवासी छात्र हैं जो दिल्ली में रहकर पढाई कर रहे हैं.

दूसरी ओर, सच को दबाने और खामोश करने की इसी परियोजना की अंतिम तार्किक परिणति के बतौर जुलाई के पहले सप्ताह में स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पाण्डेय (हेमंत पाण्डेय) की हत्या एक कथित मुठभेड़ में कर दी गई. उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वे भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य चेरिकुरी राजकुमार (आजाद) की आंध्र पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी के एकमात्र चश्मदीद गवाह थे. निश्चय ही, हेमचन्द्र की मुठभेड़ हत्या उसी सिलसिले की अगली कड़ी है जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को ‘माओवादी’ बताकर गिरफ्तार किया जा रहा है और बिना किसी चार्जशीट के महीनों जेल में बंद रखा जा रहा है. डा. विनायक सेन की माओवादियों से सम्बन्ध रखने के झूठे आरोपों में गिरफ़्तारी और दो साल तक जेल में बंद रखने के साथ जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह उत्तराखंड में प्रशांत राही, उत्तर प्रदेश में सीमा और विश्वविजय आजाद और उडीशा में लक्ष्मण चौधरी जैसे दर्जनों पत्रकारों की गिरफ़्तारी से होता हुआ अब हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या तक पहुंच गया है.

हेमचंद्र की हत्या में एक अघोषित आपातकाल की दस्तक को साफ सुना जा सकता है. इस हत्या और मीडिया और पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की तुलना आपातकाल के काले दिनों से करने की वजह यह है कि ये हमले ना सिर्फ बहुत संगठित तरीके से हो रहे हैं बल्कि उन्हें सीधे-सीधे राज्यसत्ता का आशीर्वाद और प्रोत्साहन हासिल है. दूसरे, इन हमलों में उन पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है जो सरकार-कारपोरेट-माफिया गठजोड़ की प्राकृतिक और खनिज संसाधनों की खुली लूट का पर्दाफाश करने की कोशिश कर रहे हैं या राज्यसत्ता के खिलाफ अपने जायज हकों के लिए लड़ रहे आमलोगों की आवाज़ को उठाने की पहल कर रहे हैं. ये वे पत्रकार/लेखक/बुद्धिजीवी हैं जो शासक वर्गों द्वारा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्ष में बनाई गई आम सहमति के खिलाफ बोलने और लिखने की जुर्रत कर रहे हैं.

स मायने में हेमचंद्र की नृशंस हत्या को एक टेस्ट केस माना जाना चाहिए. निश्चय ही, इस हत्या को हाल के दिनों में चैनलों और मीडिया के साथ-साथ पत्रकरों पर बढ़ते हमलों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि मुख्यधारा के मीडिया में चैनलों पर हुए हमलों और हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या को अलग-अलग करके देखा जा रहा है. कहा जाता है कि स्वतंत्रता या आजादी अविभक्त होती है यानी उसे टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर नहीं देखा जा सकता है. यह नहीं हो सकता है कि ‘आजतक’, जी मराठी, स्टार न्यूज, आई.बी.एन-लोकमत आदि चैनलों पर सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों के हमलों और चैनलों पर नियमन के कानूनी अंकुश लगाने की कोशिशों को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला माना जाए लेकिन हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या और उन जैसे अन्य दर्जनों पत्रकारों को बिना कारण जेल में बंद रखने को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले के तौर नहीं देखा जाए?

यह कैसे हो सकता है कि चैनलों पर नियमन के नाम पर कानूनी शिकंजा डालकर उनकी आवाज को बंद करने को लोकतंत्र पर हमला माना जाए लेकिन पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/लेखकों को माओवादियों से सम्बन्ध रखने के नाम पर गिरफ्तार करने और यहां तक कि उनकी हत्या कर देने का अधिकार देनेवाले छत्तीसगढ़ विशेष कानून, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट जैसे काले कानूनों को स्वीकार कर लिया जाए? चैनलों पर हमले को निश्चय ही, किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है लेकिन लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की यह लड़ाई एकांगी नहीं हो सकती है. चैनलों और मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ एडिटर्स गिल्ड, एन.बी.ए जैसे अन्य संगठनों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बड़े और नामी चैनलों के पक्ष में बोलते हुए कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उडीशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में छोटे चैनलों औए अख़बारों के पत्रकारों के उत्पीडन के मामलों पर चुप न रहें.

कहने की जरूरत नहीं है कि जो दूसरों की आजादी की हिफाजत नहीं कर सकता है, वह अपनी भी आजादी को नहीं बचा सकता है. अगर चैनलों पर भी यह बात सौ फीसदी लागू होती है. ऐसे में, जो चैनल और समाचार मीडिया हेमचंद्र पाण्डेय के जीवन और अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए आवाज नहीं उठा रहे हैं और कहीं न कहीं चेरुकुरी राजकुमार और हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या को दो माओवादियों की हत्या को स्वाभाविक मानकर चुप हैं, वे अपनी आजादी को भी खतरे में डाल रहे हैं. यह सचमुच हैरान करनेवाला है कि इस मामले में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी बड़े चैनल और अखबार सरकार और आंध्र पुलिस के दावों पर चुप क्यों हैं? क्या उन्हें सचमुच यह विश्वास है कि आज़ाद और हेम पाण्डेय की आदिलाबाद के जंगलों में चार घंटे की मुठभेड़ के बाद मौत हुई है, जैसाकि आंध्र पुलिस दावा कर रही है?


क्या कारण है कि किसी चैनल या अखबार ने इस मुद्दे पर आंध्र पुलिस के दावों की स्वतंत्र छानबीन करने की कोशिश नहीं की? यहां तक कि सी.आर.पी.एफ पर माओवादियों के हर बड़े-छोटे हमले के बाद छत्तीसगढ़ और बंगाल के सुदूर ग्रामीण अंचलों में कैमरा लेकर दौड़ पड़नेवाले चैनलों ने मुठभेड़ स्थल तक जाने की भी जहमत नहीं उठाई. सच पूछिए तो यह किसी भी एंगल से यह घटना मानवाधिकार हनन की एक बड़ी घटना से लेकर सरकार-माओवादियों के बीच शांति प्रक्रिया को पलीता लगाने की साजिश के रूप में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक खबर थी जिसकी खोजबीन जरूरी थी लेकिन चैनलों और अख़बारों ने उसे ऐसे अनदेखा किया, गोया वह कोई खबर ही नहीं है या उसे छूते ही करंट लग जायेगा. क्या यह किसी काहिली, लापरवाही और नासमझी के कारण हुआ या इसके पीछे कोई और भी गहरा कारण है?

निश्चय ही, यह काहिली, लापरवाही और नासमझी का मामला नहीं लगता है क्योंकि ऐसा होता तो एक-दो, चार-पांच चैनलों तक सीमित होता और कोई न कोई चैनल या अखबार इस मामले की गहराई से पड़ताल करने की कोशिश जरूर करता. लेकिन एक सामूहिक चुप्पी से साफ है कि मामला बहुत गहरा है और इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है. क्या इसके पीछे गहरे राजनीतिक-वैचारिक कारण नहीं हैं? कारपोरेट मीडिया के व्यवहार से साफ है कि बड़ी पूंजी के स्वामित्ववाले कारपोरेट चैनल भी माओवादियों को न सिर्फ आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि कथित माओवादियों या कारपोरेट लूट के विरुद्ध संघर्ष कर रहे आम आदिवासियों के खिलाफ वे केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा छेड़े गए युद्ध- आपरेशन ग्रीनहंट में पुलिस और सी.आर.पी.एफ के साथ कलम और कैमरा लेकर शामिल हो गए हैं.

यह एक त्रासद सच्चाई है कि चैनल इस आत्मघाती युद्ध के निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और सच्चे समाचारदाता के बजाय एक पार्टी बन गए हैं. यह पत्रकारिता नहीं है. यह देशभक्ति भी नहीं है. यह राष्ट्रहित भी नहीं है. इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता सच्चाई को छुपाकर या दबाने में सरकार की मदद करके देशभक्ति या राष्ट्रहित में नहीं काम कर रही है. इसके उलट सच्चाई को सामने लाकर ही वह देश को हकीकत को जानने और उसमें से कोई लोकतान्त्रिक रास्ता निकालने में मदद कर सकती है. ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है. अगर अमेरिका में समाचार मीडिया ने बुश प्रशासन की बातों पर आँख मूंदकर भरोसा करने के बजाय सच्चाई सामने लाने की कोशिश की होती और खुद को सरकार के साथ नत्थी (एम्बेडेड) न किया होता तो अमेरिका, आज इराक और अफगानिस्तान में इस खूनी जंग में नहीं फंसा होता. मीडिया को इतिहास का यह सबक जरूर याद रखना चाहिए कि किसी भी देश और समाज का सच से बड़ा मित्र और कोई नहीं होता है और झूठ से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता है.

झूठ के साथ खड़ा होके मीडिया अपनी साख भी खो रहा है. सरकारें आती-जाती रहती है लेकिन मीडिया ने अपनी साख गवां दी तो उसे हासिल करना बहुत मुश्किल होता है. इसमें किसी को आपति नहीं ही सकती है कि विचार और चर्चा के कार्यक्रमों और पृष्ठों पर चैनल और समाचार मीडिया माओवादी राजनीति और विचार पर सवाल खड़े करें लेकिन खबरों में पक्ष लेने और सच्चाई को दबाने की कीमत उन्हें अपनी विश्वसनीयता चुकाकर देनी पड़ रही है. इस सच्चाई को चैनल जितनी जल्दी समझ जाएं, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उतना ही अच्छा होगा. अन्यथा झूठ का साथ देकर वे अपनी आजादी से भी समझौता कर रहे हैं. आखिर झूठ पर खड़ी आजादी कितने दिन टिकी रह सकती है?

(कथादेश, अगस्त'10)

सोमवार, अगस्त 09, 2010

महंगाई की आग में तेल

नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी यू.पी.ए सरकार को आमलोगों की नहीं बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की ज्यादा परवाह है



कमरतोड़ महंगाई के बीच पेट्रोलियम उत्पादों- पेट्रोल, डीजल, किरासिन और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी और उन्हें नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करके यू.पी.ए सरकार ने अपना इरादा साफ कर दिया है. वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की जल्दी में है. उसकी जल्दी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे इसकी भी परवाह नहीं है कि उसके फैसलों का महा महंगाई की चक्की में पिस रहे आम लोगों पर क्या पड़ेगा? उल्टे इस मामले में, वह इतनी जल्दी में है कि पिछले पांच-छह सालों की कमी-बेशी को भी पूरा कर देना चाहती है. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में यू.पी.ए सरकार ने कई ऐसे आर्थिक फैसले किए हैं जिनका एकमात्र मकसद किसी भी कीमत पर आर्थिक सुधारों की गति को तेज करना है.

असल में, उसे लग रहा है कि आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का इससे बेहतर कोई और मौका नहीं हो सकता है. यू.पी.ए खासकर कांग्रेस नेतृत्व का गणित बिलकुल साफ है. उसे लग रहा है कि अगले आम चुनाव चार साल बाद 2014 में होने हैं यानी राजनीतिक रूप से कोई बड़ा जोखिम नहीं है. इन कड़वे फैसलों के कारण अगर आमलोग नाराज भी हों तो फ़िलहाल सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है. आम चुनाव बहुत दूर हैं और जिन विधानसभाओं (जैसे बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि) के चुनाव अगले आठ-दस महीनों में होने हैं, वहां कांग्रेस का कोई बड़ा राजनीतिक दांव नहीं लगा है. दूसरे, उसे लग रहा है कि इन राज्य विधानसभा चुनावों में महंगाई और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के बजाय स्थानीय मुद्दे ज्यादा हावी होंगे और इसके कारण उसे लोगों को ज्यादा जवाब नहीं देना पड़ेगा.


तीसरे, कांग्रेस और यू.पी.ए के राजनीतिक मैनेजरों को यह भी लग रहा है कि विपक्ष न सिर्फ कमजोर है और विभाजित है बल्कि अभी कोई चुनाव नहीं चाहता है. इसलिए न तो सरकार की स्थिरता को कोई खतरा है और न ही लोगों के गुस्से के संगठित होने की उम्मीद है. वजह, विपक्ष अपने विरोध को एक सीमा से आगे ले जाने के लिए भी तैयार नहीं है. वह भी सरकार की तरह अपने राजनीतिक गणित से चल रहा है. जब चुनाव इतने दूर हैं और कोई राजनीतिक फायदा नहीं होना है तो अभी से इतना पसीना क्यों बहाना? यही नहीं, विपक्ष में एन.डी.ए खासकर भाजपा का वास्तव में, इन फैसलों से कोई नीतिगत विरोध भी नहीं है. तथ्य यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का फैसला एन.डी.ए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2002 में किया था. आश्चर्य नहीं कि भाजपा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की नीति का नहीं बल्कि केवल उसकी टाइमिंग का विरोध कर रही है.


इन्हीं कारणों से यू.पी.ए सरकार को यह लग रहा है कि अगर आर्थिक सुधारों की अगली किस्त को अभी नहीं लागू किया गया तो आनेवाले महीनों में उन्हें लागू करना और भी मुश्किल होता जायेगा. कांग्रेस नेतृत्व की ओर से मनमोहन सिंह सरकार को इन सुधारों को लागू करने के लिए 2010 और हद से हद तक 2011 के शुरूआती महीनों तक समय दिया गया है. इसके बाद, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो जायेगी और वहां कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. इसीलिए, यू.पी.ए सरकार की जल्दबाजी समझी जा सकती है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी सरकार सुधारों की अगली किस्त को जितनी जल्दी हो लागू करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखना चाहती है.

निश्चय ही, इन आर्थिक सुधारों में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करके बाजार के हवाले करने का फैसला सबसे कठिन था. राजनीतिक रूप से यह फैसला बहुत ज्वलनशील था क्योंकि महंगाई आसमान छू रही है और ऐसे समय में, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ाने का मतलब था कि महंगाई की आग में तेल डालना. कारण यह कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी का असर सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं की कीमतों पर पड़ता है क्योंकि इन सभी के उत्पादन और संचालन में पेट्रोलियम उत्पादों का इस्तेमाल होता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कोई भी और सरकार होती जिसे थोड़ी भी आमलोगों की चिंता होती तो वह यह फैसला अभी नहीं करती.


इसकी वजहें बिलकुल साफ है. पिछले सालभर से अधिक समय से महंगाई अपने चरम पर है और सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकारी घोषणाओं के बावजूद वह नीचे नहीं आ रही है. दूसरे, यह महंगाई जो शुरू में खाद्य वस्तुओं की महंगाई के रूप में लोगों का जीना दूभर किए हुए थी, वह पिछले कुछ महीनों से सभी वस्तुओं और सेवाओं तक फ़ैल गई है. आश्चर्य नहीं कि पिछले कई महीनों से जहां खाद्य वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 17 प्रतिशत से ऊपर चल रही है, वहीँ पिछले चार महीनों से सभी वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर लगातार 10 फीसदी से ऊपर बनी हुई है. हालांकि महंगाई के ये आंकड़े एक रिकार्ड हैं लेकिन फिर भी ये असलियत से काफी दूर हैं. याद रहे कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर वास्तविक महंगाई का आईना नहीं है क्योंकि थोक और खुदरा मूल्यों के बीच काफी फासला होता है. यह फासला सरकारी नीतियों और बेरुखी के कारण हाल के महीनों में काफी बढ़ गया है.


लेकिन एक आम उपभोक्ता को खुदरा मूल्य ही चुकाना पड़ता है. हाल के महीनों में खुदरा मूल्यों के मामले में महंगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. खुदरा मूल्यों के मामले में खाद्यान्नों से लेकर सब्जियों तक आम आदमी की दैनिक जरूरत की सभी चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है. यह इसलिए और भी अधिक चुभती है क्योंकि देश में 90 फीसदी से अधिक श्रमिकों की मजदूरी में महंगाई के मुताबिक वृद्धि नहीं होती है और न ही उन्हें सरकारी कर्मचारियों की तरह महंगाई भत्ता मिलता है. इस मायने में, महंगाई गरीब किसानों और मजदूरों के लिए टैक्स की तरह है. महंगाई के कारण उनकी मजदूरी वास्तव में घट जाती है. इस तरह से, आमलोगों के लिए यह महंगाई की दोहरी मार है. याद रहे कि आर्थिक मंदी का बहाना बनाकर पिछले दो सालों से अधिकांश औद्योगिक इकाइयों में पहले तो श्रमिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी के वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई है.


लेकिन आम आदमी की दुहाई देनेवाली यू.पी.ए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करने से पहले उसके बारे में नहीं, पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे को कम करने और उन्हें डूबने से बचाने के बारे में ज्यादा सोचा. हालांकि सच्चाई यह है कि यह फैसला सरकारी तेल कंपनियों के घाटे को कम करने के लिए नहीं बल्कि रिलायंस, एस्सार जैसी देशी तेल कंपनियों का मुनाफा बढ़ाने और विदेशी तेल कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने के लिए उठाया है. सरकार की सोच का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ठीक उसी समय जब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नरेगा के तहत मिलनेवाले काम के दिनों को बढ़ाकर 200 दिन करने और न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने का प्रस्ताव भेजा तो उसे ठुकराने में वित्त मंत्रालय को जरा भी सोचने की जरूरत महसूस नहीं हुई.


जाहिर है कि आनेवाले महीनों में महंगाई का कहर और बढ़ेगा. आमलोगों की तकलीफें बढेंगी. लेकिन लगता नहीं है कि यू.पी.ए सरकार को इसकी परवाह है. वह अपने फैसले से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं दिख रही है. हालांकि भारत बंद की भारी सफलता और आमलोगों के बढ़ते गुस्से के कारण सरकार पर राजनीतिक दबाव बढ़ा है लेकिन वह फ़िलहाल पीछे हटने के मूड में नहीं दिख रही है. उसने मन बनाया हुआ है और पुनर्विचार के कोई संकेत नहीं हैं. उल्टे खुद प्रधानमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के फैसले की जोरदार वकालत करते हुए कहा है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. उनका तो यहां तक कहना है कि यह फैसला बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. यानी पहले वामपंथी दलों का दबाव और फिर पिछले साल के आम चुनाव और बाद में, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव नहीं रहे होते तो यह फैसला और भी पहले हो गया होता.


इससे यू.पी.ए सरकार की उस नव उदारवादी आर्थिक सोच का पता चलता है जो बाजार में आँख मूंदकर भरोसा करती है और मानती है कि पेट्रोलियम उत्पादों सहित ऐसी सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं को बाजार के हवाले कर दिया जाना चाहिए. उनकी कीमतें बाजार को तय करने देना चाहिए और उनके लिए सब्सिडी बिल्कुल नहीं मिलनी चाहिए. जैसाकि मनमोहन सरकार के सबसे प्रमुख आर्थिक मैनेजर मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा भी है कि पेट्रोल-डीजल पर सब्सिडी बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए. आश्चर्य नहीं कि सरकार की इस घोषित नीति के मुताबिक ही कृषि मंत्री शरद पवार ने चीनी उद्योग और उसकी कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की इच्छा जाहिर कर दी है. अगले कुछ सप्ताहों में चीनी को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. बहरहाल, अभी सिर्फ पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त किया गया है जबकि सरकार का दावा है कि डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि के बावजूद उनपर भारी सब्सिडी जारी है. मुरली देवड़ा का दावा है कि इसके कारण कीमतों में बढ़ोत्तरी के बावजूद इस साल सरकारी तेल कंपनियों को 53 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ेगा.


इस सिलसिले में, प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. प्रधानमंत्री का तर्क है कि यह फैसला देश हित में है. उनका और पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा का कहना है कि सरकार के पास इस फैसले के अलावा और कोई चारा नहीं था क्योंकि अगर यह फैसला नहीं किया गया होता तो सरकारी तेल कंपनियां दिवालिया हो जातीं. लेकिन सच्चाई ठीक इसके उलट है. असल में, इसके लिए यू.पी.ए सरकार पर मुकेश अम्बानी के रिलायंस, रुइया के एस्सार और अन्य देशी-विदेशी कंपनियों का भारी दबाव है. ये सभी कम्पनियां पेट्रोलियम उत्पादों खासकर पेट्रोल और डीजल के खुदरा कारोबार में जोरशोर से उतरना चाहती हैं. उल्लेखनीय है कि रिलायंस और एस्सार ने 2002 में एन.डी.ए सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के बाद देश के कई हिस्सों में सैकड़ों की संख्या में पेट्रोल पम्प खोले थे लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के बाद फिर से कीमतों पर नियंत्रण लागू कर दिए जाने के कारण उन्हें अपने पेट्रोल पम्प बंद करने पड़े थे क्योंकि उनके मुनाफे का मार्जिन घट गया था. अब एक बार फिर ये कंपनियां अपने उन बंद पड़े पेट्रोल पम्पों और नए पम्प खोलने की तैयारी में जुट गई हैं.


साफ है कि इस फैसले से किसे सबसे अधिक फायदा होने जा रहा है? शेयर बाजार में इन निजी तेल कंपनियों के शेयरों में उछाल से भी यह स्पष्ट है कि और अधिक मुनाफे की उम्मीद में देशी-विदेशी निवेशक इन कंपनियों में निवेश कर रहे हैं. ध्यान रहे कि दिवालिया होने के सरकारी दावों के विपरीत सरकारी और निजी तेल कंपनियों बिना किसी अपवाद के साल दर साल भारी मुनाफा कमा रही हैं. अगर उनके पिछले दस साल के वित्तीय प्रदर्शन को देखा जाए तो वे हर साल मोटा मुनाफा बना रही हैं. कुछ बड़ी सरकारी और रिलायंस जैसी निजी तेल कंपनियों का मुनाफा तो हजारों करोड़ रूपयों में है. उदाहरण के लिए, बीते वित्तीय वर्ष 2009-10 में सरकारी तेल कंपनी इंडियन आयल को 10998 करोड़ रूपये, ओ.एन.जी.सी को 16768 करोड़ रूपये और निजी क्षेत्र की रिलायंस को 16236 करोड़ रूपये का शुद्ध मुनाफा हुआ.


इससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि यू.पी.ए सरकार की नजर में देशहित का अर्थ क्या है? सच यह है कि उसके लिए देशहित का मतलब आमलोगों से ज्यादा कंपनियों का हित है. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर आमलोगों की कीमत पर आनेवाले महीनों में पट्रोलियम उत्पादों की तरह ही चीनी को भी पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने का मन बना चुकी है. उसके लिए भी बहाना आमलोगों को महंगाई से मुक्ति दिलाने का बनाया जायेगा. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कई बार दोहरा चुके हैं कि मौजूदा महंगाई के पीछे बिचौलिए और खुदरा व्यापारी जिम्मेदार हैं और उनसे मुक्ति दिलाने के लिए खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को लाना जरूरी हो गया है. इसी तरह, आनेवाले महीनों में वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए और खोलने के अलावा सरकारी कंपनियों को बेचने की गति भी तेज होगी.
(जनमत, अगस्त'10)

रविवार, अगस्त 08, 2010

क्यों बेचैन है यू.पी.ए सरकार, खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को बुलाने के लिए?

यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने की तैयारी कर रही है. इस सिलसिले में उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने हाल ही में एक चर्चा पत्र जारी करके लोगों से राय मांगी है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोला जाना चाहिए या नहीं? लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा भर है. इस मुद्दे पर चर्चा और विचार-विमर्श को सिर्फ आड़ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. यू.पी.ए सरकार अपना मन बना चुकी है. सरकार के आला मंत्रियों और अफसरों के रवैये से साफ है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने का फैसला अब एक औपचारिकता मात्र है. जब खुद प्रधानमंत्री इसकी वकालत कर रहे हैं तब चर्चा के निष्कर्ष का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.



असल में, १९९७ में थोक व्यापार (कैश एंड कैरी) में सौ प्रतिशत और २००६ में एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में ५१ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत पहले ही दी जा चुकी है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक थोक व्यापार में अब तक लगभग १.७७ अरब डालर (७७७९ करोड़ रूपये) और एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में नौ अरब रूपये का एफ.डी.आई आ चुका है. जाहिर है कि इसके बाद तार्किक तौर पर खुदरा व्यापार को खोलने की बारी आती है. यही नहीं, खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने को लेकर यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी और विदेशी पूंजी और उसके पैरोकारों का जबरदस्त दबाव है. सरकार पर सी.आई.आई,एसोचैम,फिक्की जैसे बड़े देशी औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों से लेकर यूरोपीय संघ, अमेरिका जैसे देश लगातार दबाव बनाये हुए हैं. यहां तक कि जी-२० की हालिया टोरंटो बैठक के घोषणापत्र में भी व्यापार को और उदार बनाने की प्रतिबद्धता दोहराई गई है.


यह ठीक है कि यह दबाव काफी लंबे समय से पड़ रहा है और पिछले एक दशक में पहले एन.डी.ए और बाद में, यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोलने की कोशिश की लेकिन घरेलू खुदरा व्यापारियों के भारी विरोध और आंतरिक राजनीतिक अंतर्विरोधों के कारण दोनों ही सरकारों को पीछे हटना पड़ा. पिछली बार यू.पी.ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपील की थी कि कोई भी फैसला लेने से पहले खुदरा व्यापार व्यापार पर एफ.डी.आई के असर का अध्ययन होना चाहिए. इसके कारण फैसला कुछ दिनों के लिए टल गया.


लेकिन इससे खुदरा क्षेत्र को खोलने की कोशिशें थमीं नहीं. ताजा कोशिश को उसी सिलसिले की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. यू.पी.ए सरकार का दावा है कि खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने से न सिर्फ काफी विदेशी निवेश आएगा बल्कि प्रतियोगिता बढ़ने से आम उपभोक्ताओं और उत्पादकों को भी फायदा होगा. सरकार का तर्क है कि अभी ‘खेत से खाने की मेज तक’ सीधी सप्लाई चेन न होने से खाद्य वस्तुओं और फलों-सब्जियों की कमी का फायदा बिचौलिए उठा रहे हैं और इसके कारण एक ओर, आम उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है, दूसरी ओर, किसानों को भी पूरी कीमत नहीं मिल पाती है. सरकार के मुताबिक खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश आने से बिचौलिओं की भूमिका कम होने के कारण यह लाभ होगा.


सरकार को यह भी उम्मीद है कि इस फैसले से कृषि क्षेत्र में भण्डारण खासकर शीत भण्डारण गृहों और खाद्य प्रसंस्करण में नया निवेश आएगा. सरकार के अनुसार पर्याप्त भण्डारण सुविधाओं के अभाव में हर साल लगभग एक खरब रूपये के फल, सब्जियां और खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं. सरकार के मुताबिक इससे लघु और मध्यम उद्योगों को भी लाभ होगा क्योंकि उन्हें बड़े विदेशी खुदरा व्यापारियों से जुडकर न सिर्फ ब्रांडिंग का फायदा मिलेगा बल्कि विश्व बाजार में भी पहुँचने का मौका मिलेगा. साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को महंगाई से लेकर कृषि और लघु-मध्यम उद्योगों की सभी समस्याओं के हल के रूप में देख रही है.


लेकिन सच्चाई क्या है? पहली बात तो यह है कि खुदरा व्यापार क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई मामूली या आम क्षेत्र नहीं है. यह कृषि के बाद अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील क्षेत्र है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जी.डी.पी में खुदरा व्यापार का योगदान लगभग ८ फीसदी के आसपास है लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि इसमें कृषि क्षेत्र के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एन.एस.एस.ओ के सबसे ताजा सर्वेक्षण (०७-०८) के मुताबिक खुदरा व्यापार में कुल श्रमशक्ति के ७.२ प्रतिशत लोगों यानी कोई ३.३१ करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर एक व्यक्ति के परिवार में औसतन ५ सदस्य मानें तो कोई १६ करोड़ से अधिक लोगों की रोजी-रोटी खुदरा व्यापार पर टिकी हुई है.


निश्चय ही, एक ऐसे देश में जहां बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक हो, वहां यह कोई मामूली बात नहीं है. सिर्फ यह नहीं कि ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी औ भीख निदान’ माननेवाले इस देश में एक पेशे के बतौर व्यापार को कृषि के बाद सबसे आदर का दर्जा हासिल रहा है बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि खुदरा व्यापार से अपनी रोजी-रोटी चला रहे लाखों लोग ऐसे हैं जो रोटी-रोजगार के किसी अन्य विकल्प के अभाव में खुद अपनी मेहनत और उद्यमिता से छोटी-मोटी दुकान खोलने से लेकर रेहड़ी-पटरी पर ठेला लगाकर गुजर-बसर कर रहे हैं. इस मायने में खुदरा व्यापार क्षेत्र हमेशा से सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का स्वनिर्मित क्षेत्र रहा है जहां बिना किसी सरकारी सहायता या प्रोत्साहन के लाखों लोगों की आजीविका चलती रही है.


भारतीय अर्थव्यवस्था में खुदरा क्षेत्र के महत्व का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश में लगभग १.१० करोड़ से अधिक खुदरा कारोबार करनेवाली दुकानें हैं और इसमें सिर्फ ४ प्रतिशत दुकानें ऐसी हैं जो ५०० वर्ग मीटर से ज्यादा बड़ी हैं. इसके उलट अमेरिका में सिर्फ ९ लाख खुदरा दुकानें हैं जो भारत की तुलना में तेरह गुना बड़े खुदरा बाजार की जरूरतों को पूरा करती हैं. आश्चर्य नहीं कि खुदरा दुकानों की उपलब्धता यानी दुकान घनत्व के मामले भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. ए.सी निएल्सन और के.एस.ए टेक्नोपैक के मुताबिक भारत में प्रति हजार व्यक्ति पर ११ खुदरा दुकानें हैं. साफ है कि भारत में खुदरा व्यापार सिर्फ एक आर्थिक गतिविधि या कारोबार भर नहीं है बल्कि यह करोड़ों लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है.


सवाल है कि अगर खुदरा व्यापार के क्षेत्र में एफ.डी.आई की अनुमति दी गई तो उसका घरेलू असंगठित खुदरा व्यापारियों पर क्या असर पड़ेगा? इसमें शक है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की संगठित ताकत के आगे एक असमान प्रतियोगिता में अधिकतर छोटे खुदरा व्यापारी टिक पाएंगे. अधिक आशंका यही है कि उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे कारोबार से बाहर हो जायेंगे. इसका अर्थ यह होगा कि करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि उनके पास आजीविका का और कोई वैकल्पिक साधन नहीं होगा. यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा खतरा नहीं है. इसके संकेत मिलने लगे हैं. अभी ही उन शहरों में जहां देशी बड़ी पूंजी ने खुदरा व्यापार में घुसपैठ की है और जिन इलाकों में बड़े शापिंग माल्स से लेकर सुपर स्टोर्स खोले हैं, वहां आसपास की छोटी दुकानों की बिक्री पर नकारात्मक असर पड़ा है, अधिकांश दुकानों का मुनाफा घटा है जबकि कई बंद हो गईं या होने के कगार पर पहुंच गईं हैं.


ऐसा इसलिए हो रहा है कि बड़े माल्स और सुपर स्टोर्स ग्राहकों को खींचने के लिए मार्केटिंग के सभी तौर-तरीकों के अलावा कीमत युद्ध (प्राइस वार) का भी खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि छोटे दुकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए बड़ी पूंजी लंबे समय तक घाटा उठा सकती है लेकिन एक छोटा-मंझोला यहां तक कि बड़ा दुकानदार भी इस प्रतिस्पर्धा में लंबे समय तक घाटा उठाने की स्थिति में नहीं है. असल में, दोनों में कोई प्रतियोगिता है ही नहीं. कल्पना कीजिये कि जब वाल मार्ट, टेस्को, कारफोर जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुदरा व्यापार में आने की इजाजत मिल जायेगी तो क्या होगा? उदाहरण के लिए वाल मार्ट को ही लीजिए जो भारत में आने के लिए अत्यधिक बेचैन है और भारती के साथ थोक यानी कैश एंड कैरी व्यापार में पहले से ही सक्रिय है.


वाल मार्ट न सिर्फ अमेरिका की सबसे बड़ी कंपनी है बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा कारोबार करनेवाली कंपनी है. वर्ष २००९ में उसका सालाना कारोबार ४०८ अरब डालर का रहा जबकि उसका शुद्ध मुनाफा १४.३३ अरब डालर (६८७ अरब रूपये) था. वाल मार्ट की कुल परिसंपत्तियां लगभग १७०.७० अरब डालर की हैं. अब ऐसी कंपनी भारत में खुदरा कारोबार में आती है तो उसके आगे छोटे-मंझोले और बड़े दुकानदारों का टिकना तो दूर की बात है, यहां तक कि खुदरा व्यापार में सक्रिय अम्बानी, बिरला, गोयनका, बियानी जैसे बड़े भारतीय उद्योगपतियों के लिए भी अत्यधिक मुश्किल होगा. शायद यही कारण है कि अधिकांश बड़े देशी उद्योगपति खुदरा व्यापार में अकेले नहीं बल्कि किसी बड़ी विदेशी खुदरा कारोबारी कंपनी की पीठ पर बैठकर घुसना चाहते हैं. इसीलिए वे जोरशोर से खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की वकालत कर रहे हैं.


वाल मार्ट जैसी कंपनियों के खुदरा व्यापार में आने का क्या असर हो सकता है, इसका अंदाज़ा इस अमेरिकी अध्ययन से लगाया जा सकता है जिसके मुताबिक जिन भी छोटे-बड़े शहरों में वाल मार्ट स्टोर खुले, वहां अगले दस वर्षों में आधे से अधिक खुदरा व्यापार पर वाल मार्ट का कब्ज़ा हो गया. खाद्य व्यापार पर वाल मार्ट जैसे स्टोर्स के खतरनाक प्रभाव पर अपने महत्वपूर्ण काम के लिए चर्चित डा. राज पटेल के मुताबिक अमेरिका के नेब्रास्का में हुए एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि वहां अलग-अलग इलाकों में दो वाल मार्ट स्टोर्स खुले जिसमें पहले में हद से ज्यादा सस्ती कीमतें थीं जबकि दूसरे में, उपभोक्ताओं को सामान्य से १७ प्रतिशत अधिक कीमत देनी पड़ी क्योंकि तब तक उससे प्रतियोगिता में कोई नहीं रह गया था. साफ है कि यह एक भ्रम है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को सस्ती वस्तुएँ मिलेंगी.


यही नहीं, यह दावा भी तथ्यों से परे है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई आने से बिचौलिए खत्म हो जायेंगे. सच यह है कि मौजूदा बिचौलियों के खत्म हो जाने के बाद उनकी जगह मैनेजमेंट स्कूल में पढ़े और मोटी तनख्वाह लेनेवाले नए बिचौलिए आ जाएंगे जिनकी ऊँची तनख्वाहों का बोझ आखिरकार आम उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा. साथ ही, सरकार का यह दावा थोथा है कि खुदरा कारोबार में इन बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को ही फायदा होगा. हकीकत इसके उलट है. एक बार खुदरा बाज़ार से प्रतियोगिता के खत्म होने और बाज़ार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के एकाधिकार स्थापित होने के बाद उत्पादकों यानी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को ही इन बड़ी कंपनियों की दया पर निर्भर रहना पड़ेगा.


जाहिर है कि इससे खतरनाक स्थिति और नहीं हो सकती है. उस स्थिति में, सरकार उपभोक्ताओं या उत्पादकों की मदद के लिए आगे आएगी, इसकी उम्मीद करना बेकार है. आखिर बाज़ार को खुदा माननेवाली सरकार बाज़ार के कामकाज में हस्तक्षेप कैसे कर सकती है? सवाल है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन यू.पी.ए सरकार ने क्या इन पहलुओं पर भी विचार करेगी?

(जनसत्ता, अगस्त'१०)