शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने के लिए आपने क्या किया?

नए साल की शुभकामनाएं और एक व्यक्तिगत अपील 

वर्ष 2011 को वैकल्पिक मीडिया का साल बना दें

प्रिय मित्रों,

सबसे पहले आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं. उम्मीद है कि नए वर्ष में एक बेहतर देश और समाज बनाने की लड़ाई और मजबूत होगी. आप सभी पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के लिए अपनी कामना है कि यह वर्ष आपकी सृजनात्मकता को नयी ऊंचाई दे. आपकी कलम देश के गरीबों, बेजुबान और हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज़ बने और संघर्ष और रचना की यात्रा इसी तरह आगे बढ़ती रहे.

नए साल में मेरी आपसे एक व्यक्तिगत अपील भी है और मुझे पूरा विश्वास है कि आप उसपर ध्यान जरूर देंगे. जैसाकि आप सभी जानते हैं कि गुजरे साल में कारपोरेट मीडिया की विश्वसनीयता और साख को और बड़े झटके लगे हैं. पेड न्यूज और राडियागेट ने कारपोरेट मीडिया को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. आश्चर्य नहीं कि मुख्यधारा का कारपोरेट मीडिया न सिर्फ बड़ी पूंजी और सत्ता का भोंपू बनता जा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी गंवाता जा रहा है.

इस बारे में आपसे लगातार संवाद चलता रहा है. पिछले कई वर्षों से यह हम सभी लोगों के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है. इस साल यह चिंता कुछ हद तक निराशा और हताशा में भी बदलने लगी है. ऐसा लगने लगा है कि कारपोरेट मीडिया में बदलाव संभव नहीं है. उल्टे इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि आनेवाले वर्षों में कारपोरेट मीडिया में स्थितियां और खराब ही होंगी.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या किया जाए? आप में से बहुतेरे लोग एक सवाल अक्सर करते हैं कि इस सबका विकल्प क्या है? मेरा मानना है कि हमें दो स्तरों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. पहली यह कि कारपोरेट मीडिया से बहुत उम्मीद न करते हुए भी उसे मनमानी करने के लिए छोड़ा नहीं जा सकता है. तात्पर्य यह कि हमें कारपोरेट मीडिया के विचलनों पर सवाल खड़ा करते हुए और उसकी आलोचना करते हुए एक ओर उसका भंडाफोड करते रहना चाहिए और दूसरी ओर, उसपर अपने तौर-तरीकों को बदलने का दबाव बनाये रखना चाहिए.

लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वैकल्पिक मीडिया को खड़ा किया और बढ़ावा दिया जाए. मेरी इस बारे में बिल्कुल साफ समझ है कि अब वैकल्पिक मीडिया के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. वैकल्पिक मीडिया से ही मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया पर भी दबाव बनाया जा सकता है.

मेरी आपसे सभी से अपील है कि आप वर्ष 2011 को वैकल्पिक मीडिया का साल बनाने के लिए काम करें. इसके लिए जरूरी है कि जिस तरह से आप मुख्यधारा के अख़बारों और पत्रिकाओं, टी.वी. चैनलों आदि के लिए हर महीने पैसे खर्च करते हैं, वैसे ही वैकल्पिक मीडिया की पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइटों और वैकल्पिक सिनेमा के लिए भी कुछ पैसे जरूर खर्च करें. इसके बिना वैकल्पिक मीडिया खड़ा नहीं हो सकता है.

हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओँ में ऐसी बहुत सी पत्र-पत्रिकाएं हैं. इन पत्र-पत्रिकाओं में एक पत्रिका है : “समकालीन जनमत”. मेरी आपसे व्यक्तिगत अपील है कि आप वैकल्पिक मीडिया को मजबूत करने के लिए ‘समकालीन जनमत’ की वार्षिक सदस्यता जरूर लें. आप उसे विज्ञापन दिलाने में भी मदद कर सकते हैं. आप उसे आर्थिक सहयोग भी दे सकते हैं.

जनमत की वार्षिक सदस्यता सिर्फ 150 रूपये है और अगर आप इलाहाबाद से बाहर का चेक भेज रहे हैं तो उसमें 25 रूपये और जोड़ दें. इसके अलावा आप पांच सौ रूपये से ऊपर की आर्थिक सहायता भी भेज सकते हैं. आप अपना सहयोग ड्राफ्ट या चेक ‘समकालीन जनमत’ के नाम से बनवा के इस पते पर भेज सकते हैं. पता है: मीना राय, प्रबंध संपादक, समकालीन जनमत, 171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहबाद-211002.

मुझे उम्मीद है कि आप मेरी इस अपील पर जरूर गौर करेंगे. एक बार फिर नए साल की शुभकामनाओं सहित.

आपका,
आनंद प्रधान

बुधवार, दिसंबर 29, 2010

नव उदारवादी अर्थनीति के रतौंध और निकट दृष्टि दोष से ग्रस्त है कांग्रेस

कांग्रेसी राजनीति के अंतर्विरोध  



कांग्रेस पार्टी के लिए उसकी स्थापना का १२५ वां वर्ष इससे बुरे समय में नहीं आ सकता था. पार्टी की नेतृत्व वाली केन्द्र और राज्य सरकारें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरी हुई हैं. खुद पार्टी कारपोरेट युद्ध में पार्टी बन गई है. पार्टी और सरकार के अंदर कारपोरेट समूहों से लेकर आलाकमान खासकर अगली पीढ़ी से नजदीकी साबित करने के लिए गुटबाजी, खींचतान और भितरघात से जबरदस्त उथल-पुथल का माहौल है. इस कारण मनमोहन सिंह सरकार दिशाहीन, उद्देश्यहीन और राजनीतिक रूप से लकवाग्रस्त सी हो गई है. हालत यह हो गई कि २००९ के आम चुनावों में जीत के डेढ़ साल के अंदर ही यू.पी.ए सरकार की चमक फीकी पड़ने लगी है.

खुद कांग्रेस पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं है. बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टी के लगभग सम्पूर्ण सफाए से साफ हो गया है कि एक अखिल भारतीय पार्टी के बतौर कांग्रेस के पुनर्जीवन का रास्ता इतना आसान नहीं है. दूसरी ओर, पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ आंध्र प्रदेश में दिवंगत मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी की खुली बगावत और राजनीतिक रूप से अत्यंत ज्वलनशील तेलंगाना के फिर से भड़कने की आशंकाओं के बीच पार्टी की हालत बहुत पतली है. इसी तरह, अपने दूसरे मजबूत गढ़ महाराष्ट्र में पार्टी इतने अधिक गुटों में बंटी है और सभी एक-दूसरे के खिलाफ ऐसे घात-प्रतिघात के खेल में लगे हैं कि वहां पार्टी का खेल खत्म करने के लिए विरोधियों की जरूरत नहीं है.

हालांकि कांग्रेस के लिए ऐसी गुटबाजी और उठा-पटक कोई नई बात नहीं है. यह कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति की खास पहचान बन चुकी है. लेकिन नई बात यह है कि अपने १२५ वें साल में कांग्रेस कुछ नए, कुछ पुराने राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और वैचारिक अंतर्विरोधों में ऐसी फंस गई है जिससे उसकी राजनीतिक अग्रगति ठहरती सी दिखाई दे रही है.

असल में, कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि वह एक मध्य-वाम झुकाव वाली सामाजिक जनवादी पार्टी के बतौर आगे बढ़े या पूरी तरह से नव उदारवादी सैद्धांतिकी को जोरशोर से आगे बढ़ानेवाली मध्य-दक्षिण लिबरल पार्टी का चोला धारण कर ले या फिर दोनों के बीच संतुलन बनाकर चले?

अभी तक कांग्रेस बड़ी चतुराई के साथ दोनों खेमों को साध कर चल रही थी. मौके और मुद्दे के मुताबिक वह कभी मध्य वाम और कभी मध्य दक्षिण रूख के साथ संतुलन बनाने में कामयाब दिख रही थी. जैसे आर्थिक नीतियों के मामले में पार्टी पूरी तरह से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ खड़ी रही है लेकिन २००४ के आम चुनावों के बाद उसने सामाजिक-राजनीतिक तौर पर आर्थिक सुधारों को सहनीय बनाने के लिए आम आदमी को भी कुछ राहत देनेवाले फैसले किए हैं.

एक तरह से कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली यू.पी.ए सरकार अपने पहले कार्यकाल में अपनी राजनीतिक-आर्थिक नीतियों में अन्तर्निहित अंतर्विरोधों को सफलता के साथ साधने में कामयाब रही. निश्चय ही, गठबंधन में वाम पार्टियों की मौजूदगी से भी उसे मदद मिली.

लेकिन २००९ के चुनावों में जीत और वामपंथी पार्टियों पर निर्भरता खत्म होते ही कांग्रेस के अंदर और बाहर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कई रुके हुए नीतिगत फैसलों जैसे खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने, श्रम कानूनों में ढील से लेकर बैंकिंग-बीमा समेत पूरे वित्तीय क्षेत्र को और खोलने की मांग जोर पकड़ने लगी.

यह भी कि विनिवेश की प्रक्रिया तेज की जाए, सेज योजनाओं का रास्ता साफ किया जाए और स्थानीय समुदायों खासकर आदिवासी समुदाय के विरोध के कारण रुकी पास्को और वेदांता जैसी दर्जनों बड़ी योजनाओं को हरी झंडी दी जाए. यही नहीं, वित्तीय कठमुल्लावादी भी राजकोषीय घाटे पर काबू करने की मांग के साथ सक्रिय हो गए जिसका अर्थ यह था कि कल्याणकारी योजनाओं में कटौती की जाए और खाद से लेकर खाद्य सब्सिडी पर अंकुश लगाया जाए.

दूसरे, २००९ की जीत को एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में अपनी पुनर्वापसी का सबूत मानते हुए कांग्रेस ९० के दशक के पहले की सर्वोच्चता के सपने देखने लगी. उसे यह भ्रम हो गया कि बिखरी और पस्त भाजपा के विपक्ष में रहते उसका अब कोई विकल्प नहीं है. इसे पार्टी नेताओं ने मनमानी और सत्ता की मलाई का खुलकर मजा लूटने का लाइसेंस मान लिया.

नतीजा यह हुआ कि नई यू.पी.ए सरकार ने न सिर्फ २००९ के जनादेश के उलट नव उदारवादी एजेंडे पर जोरशोर से अमल शुरू कर दिया बल्कि सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए आपसी संघर्ष को भी तेज कर दिया. निश्चय ही, इस एजेंडे को कांग्रेस नेतृत्व की मौन सहमति भी थी. आश्चर्य नहीं कि नई सरकार के पहले दो बजटों में खाद और खाद्य सब्सिडी में कटौती और विनिवेश को तेज करने जैसे फैसलों से लेकर नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने के साफ संकेत देखे जा सकते हैं.

दूसरी ओर, प्रधान मंत्री के आशीर्वाद के साथ गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने ‘विकास की राह’ में रोड़ा बन रहे माओवादियों के सफाए के लिए आदिवासी इलाकों में ग्रीन हंट के रूप में खुला युद्ध शुरू कर दिया. ऐसा लगा कि यू.पी.ए सरकार काफी हड़बड़ी में है और वह जल्दी से पिछले पांच साल की भरपाई भी कर लेना चाहती है. लेकिन सरकार की इस जल्दबाजी और तेज गति ने पार्टी और सरकार में कांग्रेस नेताओं के एक हिस्से को बेचैन कर दिया.

इस बेचैनी की एक वजह यह भी थी कि सत्ता की मलाई में इन्हें हिस्सा नहीं मिला था या इनकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं मिला था. इसके अलावा कुछ बड़े कारपोरेट समूहों को भी शिकायत थी कि उनके हितों की कीमत पर दूसरे समूहों को बढ़ावा दिया जा रहा है.

नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस नेताओं और मंत्रियों के एक हिस्से ने न सिर्फ यू.पी.ए सरकार के मंत्रियों बल्कि सरकार की नव उदारवादी नीतियों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया. इस प्रवृत्ति को कांग्रेस के उस अंदरूनी सत्ता संघर्ष से और बल मिला जिसका सम्बन्ध भविष्य में पार्टी नेतृत्व में पीढ़ीगत परिवर्तन से है. ध्यान रहे कि कांग्रेस नेताओं में अगले कुछ सालों में राहुल गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस में अपनी जगह पक्की करने की होड़ सी मची है.

इस पूरी प्रक्रिया को जमीनी जनसंघर्षों ने एक नया आयाम दे दिया. असल में, कांग्रेस नेतृत्व की उम्मीद के विपरीत नव उदारवादी नीतियों की आम लोगों में तीखी प्रतिक्रिया हुई और दूसरी ओर, ग्रीन हंट से लेकर बेलगाम माइनिंग और औद्योगिकीकरण के नाम पर जमीन की लूट के खिलाफ गरीबों, किसानों और आदिवासियों ने घुटने टेकने के बजाय संघर्ष तेज कर दिया.

इधर मध्यवर्ग में भी दो कारणों से सरकार और कांग्रेस को लेकर नाराजगी और बेचैनी बढ़ रही है. पहला, महंगाई बेलगाम हो गई है और सरकार ने एक तरह से उसके आगे घुटने टेक दिए हैं. लगातार तेईस महीनों से भी ज्यादा समय से महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर दोहरे अंकों में चल रही है.

यही नहीं, बेरोजगारी भी नया रिकार्ड बना रही है. अर्थव्यवस्था की तीव्र वृद्धि दर के बावजूद रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हो रही है. खुद सरकार के श्रम ब्यूरो के मुताबिक, २००९-१० में बेरोजगारी की दर ९.४ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. दूसरे, पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में सरकार के साथ-साथ सुरेश कलमाड़ी जैसे नेताओं और अशोक चव्हाण जैसे मुख्यमंत्रियों के नाम सामने आने के बाद पार्टी की साख बुरी तरह से गिरी है.

हालांकि कांग्रेस ने २ जी घोटाले के सामने आने के बाद उसे यू.पी.ए के कुछ घटक दलों तक सीमित समस्या और गठबंधन राजनीति की मजबूरी के रूप में पेश करने की कोशिश की लेकिन नीरा राडिया टेप्स से साफ है कि भ्रष्टाचार में सिर्फ घटक दलों के ही नहीं, कांग्रेस के मंत्री भी किसी से पीछे नहीं हैं. यही नहीं, २ जी घोटाले की जे.पी.सी से जांच न करवाने के मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व जिस तरह से अड गया है, उससे भी लोगों में यह सन्देश गया है कि सरकार और कांग्रेस कुछ छुपाने की कोशिश कर रही है. इस सबके बाद कांग्रेस नेतृत्व के लिए नैतिक रूप से खुद को सबसे ऊपर दिखाने की रणनीति की धार कमजोर पड़ी है.

सच तो यह है कि कांग्रेस नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लीपापोती का और अड़ियल रवैया अपनाकर भाजपा को भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई का चैम्पियन बनने का मौका दे दिया है. एक तरह से कांग्रेस की गलतियों से भाजपा को राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई है. ऐसे में, कांग्रेस चाहे भगवा सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ चाहे जितना आग उगले लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी अपनी राजनीति के कारण भाजपा को पुनर्जीवन मिल रहा है.

हालांकि तथ्य यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा का रिकार्ड कांग्रेस से अच्छा नहीं है और उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का कोई नैतिक हक नहीं है लेकिन विडम्बना देखिये कि यही भाजपा आज कांग्रेस की कृपा से भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई की चैम्पियन बनती दिख रही है.

यह कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोधी रणनीति के दिवालिएपन का प्रतीक है. अगर कांग्रेस नेतृत्व को लगता है कि भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ हल्ला बोलकर वह उन्हें रोक लेगा तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल है. साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई राजनीतिक रूप से कभी भी एकांगी नहीं हो सकती है. उसे राजनीति में भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे के साथ-साथ रोजगार और महंगाई से लेकर गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के हक-हुकूक के मुद्दों को जोड़ना पड़ेगा.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोधी मुहिम में ये सवाल कहीं नहीं हैं. यही नहीं, साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर वह नरम हिंदुत्व की लाइन को आगे बढ़ाते हुए भाजपा और संघ परिवार को निशाना बनाकर खुद को धर्मनिरपेक्षता की चैम्पियन साबित करने की कोशिश कर रही है जिसकी सीमाएं बहुत पहले ही सामने आ चुकी हैं.

आश्चर्य नहीं कि जब विकीलिक्स के खुलासे से यह ‘तथ्य’ सामने आया कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी लश्कर-ए-तैय्यबा जैसे मुस्लिम आतंकी संगठनों के जवाब में उभर रहे घरेलू हिंदू आतंकी संगठनों को बड़ा खतरा मानते हैं और भाजपा ने इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की, कांग्रेस ने युवराज के बयान पर लीपापोती करके तुरंत पीछा छुडाने की कोशिश की. इस मामले में कांग्रेस की घबराहट देखने लायक थी. असल में, कांग्रेस जिस नरम हिंदुत्व की राजनीति करती है, उसमें उग्र हिंदुत्व के खिलाफ खुलकर बोलने की गुंजाईश नहीं है.

यही कारण है कि वह भाजपा और संघ का डर दिखाकर और खुद को उनका सबसे बड़ा विरोधी बताकर मुस्लिम समुदाय को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने की राजनीति तो कर सकती है लेकिन उसमें राजनीतिक और वैचारिक रूप से उग्र हिंदुत्व का मुकाबला करने की हिम्मत नहीं है. अयोध्या विवाद पर कोर्ट के फैसले पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया इसका एक और प्रमाण है.

दरअसल, यह कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति का ऐसा अंतर्विरोध है जिससे संघ और भाजपा को सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा हुआ है. उम्मीद थी कि कांग्रेस अपने ८३ वें महाधिवेशन में इन सभी मुद्दों और राजनीतिक अंतर्विरोधों पर अधिक स्पष्टता के साथ सामने आएगी. लेकिन महाधिवेशन के प्रस्तावों और प्रमुख नेताओं के भाषणों से साफ है कि अपने १२५ वें साल में कांग्रेस राजनीति और वैचारिक रूप से न सिर्फ निकट दृष्टि दोष का शिकार है बल्कि वह नव उदारवादी अर्थनीति के रतौंध से भी ग्रस्त है.

नतीजा यह कि कांग्रेसी राजनीति में धुंधलापन बढ़ता ही जा रहा है. इस राजनीतिक-वैचारिक धुंधलेपन में गुटबाजी, चापलूसी, भितरघात, सत्तालोलुपता और सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए मारकाट नहीं मचेगी तो और क्या होगा? इसका राजनीतिक फायदा किसे हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है.

(दैनिक 'जनसत्ता' में २९ दिसंबर'१० को प्रकाशित)

मंगलवार, दिसंबर 28, 2010

डा. बिनायक सेन को उम्र कैद के बाद प्रधानमंत्री को नींद कैसे आ रही है?

विरोध प्रदर्शन नहीं होते तो आज जेसिका, प्रियदर्शिनी और रुचिरा के हत्यारे जेल में नहीं होते


डा. बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में उम्र कैद की सजा पर कुछ बुद्धिजीवियों का तर्क है कि यह फैसला कोर्ट का है. कोर्ट की सबको इज्जत करनी चाहिए. अगर आप फैसले से सहमत नहीं हैं तो ऊँची कोर्ट में जाइये लेकिन कोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़क पर विरोध मत करिए. उनका यह भी कहना है कि कोर्ट के फैसले के विरोध से देश में अराजकता फ़ैल जायेगी और इसका सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक फासीवादी शक्तियां उठाएंगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे बुद्धिजीवी या तो बहुत भोले हैं या फिर बहुत चालाक. वैसे सनद के लिए बताते चलें कि ठीक यही तर्क देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा का भी है. लेकिन सोमवार को जंतर-मंतर पर बिनायक सेन को सजा देने के खिलाफ आयोजित प्रदर्शन के दौरान अरुंधती ने बिल्कुल ठीक कहा कि सबसे बड़ी सजा तो खुद न्याय प्रक्रिया है. मतलब यह कि डा. सेन दो साल पहले ही जेल में रह चुके हैं. अब हाई कोर्ट में जमानत के लिए लडें और जीवन भर मुक़दमा लड़ते रहें.

सचमुच, इससे बड़ी सजा और क्या हो सकती है कि ६१ साल की उम्र में डा. सेन इस कोर्ट से उस कोर्ट और इस जेल से उस जेल तक चक्कर काटते रहें? क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि भ्रष्ट और निरंकुश सत्ताएं, उनपर उंगली उठानेवालों या जनता के लिए लड़नेवालों को पुलिस की मदद से जेल-कोर्ट-कचहरी के अंतहीन यातना चक्र में कैसे फंसाती रहती हैं?

ऐसे एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण हैं. आज भी पूरे देश में सैकड़ों बिनायक सेन सत्ता और पुलिस के षड्यंत्र और कोर्ट की मुहर के साथ जेलों में सड़ रहे हैं. इनमें जन संगठनों से लेकर कथित आतंकवादी संगठनों के लोग शामिल हैं. इसके अलावा हजारों निर्दोष नागरिक हैं जो पुलिसिया साजिश के कारण बरसों-बरस से जेल-कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं.

लेकिन इससे किसी की नींद खराब नहीं हो रही है. प्रधानमंत्री आराम से सोये हुए हैं. याद कीजिये, जब २००७ में आस्ट्रेलिया पुलिस ने भारतीय डाक्टर मोहम्मद हनीफ को ग्लासगो बम विस्फोट के सिलसिले में गिरफ्तार किया था, तब पूरे देश में फूटी गुस्से की लहर के बाद मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘ (डा. हनीफ की गिरफ़्तारी के बाद) वे रात में सो नहीं पाते.’ ताजा खबर यह है कि आस्ट्रेलिया ने न सिर्फ डा. हनीफ से गलत केस में फंसाए जाने के लिए माफ़ी मांगी है बल्कि उन्हें मुआवजा देने का भी एलान किया है.

लेकिन कहना मुश्किल है कि डा. बिनायक सेन की गिरफ़्तारी के बाद प्रधानमंत्री को नींद कैसे आ रही है? असल में, जिसके पास थोड़ी सी भी बुद्धि है और उसने उसे सत्ता और पूंजी के पास गिरवी नहीं रखा है, वह डा. सेन को देशद्रोह के आरोपों में उम्र कैद की सजा पर चुप नहीं रह सकता है. वैसे ही जैसे बहुतेरे बुद्धिजीवियों और संपादकों ने जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, रुचिका गिरहोत्रा जैसे मामलों में निचली अदालतों के अन्यायपूर्ण फैसलों पर खुलेआम अपना गुस्सा जाहिर किया था. देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए थे और जनमत के दबाव में ताकतवर लोगों द्वारा न्याय का मजाक बनाये जाने की प्रक्रिया पलटी जा सकी थी.


कहने की जरूरत नहीं है कि अगर वे विरोध प्रदर्शन नहीं हुए होते और लोगों का गुस्सा सड़क पर नहीं आता तो जेसिका, प्रियदर्शिनी और रुचिरा के हत्यारे सम्मानित नागरिकों की तरह आज भी घूम रहे होते..

सचमुच, आश्चर्य की बात यह नहीं है कि डा. बिनायक सेन जेल में क्यों हैं बल्कि यह है कि हम सब बाहर क्यों हैं? कई बार ऐसा लगता है, जैसे पूरा देश ही एक खुली जेल में तब्दील होता जा रहा है जहाँ सच बोलना मना है...सच बोलने का मतलब है- खुली जेल से बंद जेल को निमंत्रण.  

रविवार, दिसंबर 26, 2010

सरकार ने महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं

क्यों नहीं रुक रही है महंगाई?



महंगाई की सुरसा का बदन लगातार फैलता ही जा रहा है. नवंबर के तीसरे सप्ताह में जब मुद्रास्फीति के आंकड़े दहाई के बजाय इकाई में आये तो थोड़े समय के लिए ऐसा लगा कि महंगाई अब शायद नीचे की ओर आ रही है. लेकिन प्याज और टमाटर सहित अन्य सब्जियों की कीमतों में भारी उछाल ने एक बार फिर महंगाई की आग में घी डालने का काम किया है.

आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं. ११ दिसम्बर को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर एक बार फिर उछलकर दो अंकों में पहुंच गई है. इसके पहले के सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर ९.५ प्रतिशत थी जो इस सप्ताह बढ़कर १२.१ प्रतिशत हो गई है.

खाद्य मुद्रास्फीति की यह १२.१ प्रतिशत की दर इस मायने में बहुत ज्यादा है कि पिछले साल इसी सप्ताह खाद्य मुद्रास्फीति की दर २० वर्षों के सबसे उंचे स्तर २१.१३ प्रतिशत पर पहुंच गई थी. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले वर्ष के इतने अधिक उंचे आधार या बेस पर इस साल १२.१ प्रतिशत की दर से साफ हो गया है कि महंगाई पर यू.पी.ए सरकार का कोई काबू नहीं रह गया है. असल में, यह महंगाई इसलिए भी अधिक चुभ रही है कि पिछले २३ महीने से ज्यादा समय से मुद्रास्फीति की दर लगातार दहाई में चल रही है.

यह तय है कि अगले सप्ताह भी मुद्रास्फीति के ये आंकड़े नीचे आने के बजाय ऊपर ही जाएंगे क्योंकि अभी पिछले सप्ताह ही पेट्रोल की कीमतों में भी तीन रूपये प्रति लीटर के आसपास वृद्धि की गई है. आसार हैं कि सरकार जल्दी ही डीजल की कीमतों में भी वृद्धि करेगी. इसका क्रमानुपातिक यानी कैसकेडिंग प्रभाव होगा और सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़नी तय हैं क्योंकि परिवहन के साथ वस्तुओं के उत्पादन की लगत बढ़ जायेगी. दूसरी ओर, कृषि मंत्री शरद पवार की मानें तो प्याज और अन्य सब्जियों आदि की कीमतों में अगले तीन-चार सप्ताहों तक कमी आने की कोई उम्मीद नहीं है.

यह और बात है कि उनका बयान लोगों को राहत देनेवाला कम और जले पर नमक छिडकने वाला अधिक था. वैसे उनके बयान से सट्टेबाजों, कालेबाजारियों और मुनाफाखोरों को खुलकर खेलने का मौका जरूर मिल गया. यह सचमुच हैरान करनेवाली बात है कि ऐसे सभी मौकों पर पवार ऐसे बयान किसके फायदे के लिए देते हैं? यू.पी.ए के कृषि मंत्री के बतौर पवार की भूमिका निश्चित ही सवालों के घेरे में है. उल्लेखनीय है कि पवार के पास न सिर्फ कृषि बल्कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय भी है लेकिन हर ऐसे सीजनल संकट के समय जब किसी न किसी खाद्य या कृषि उत्पाद की आपूर्ति में कमी के कारण कीमतों पर दबाव बढ़ा, ये दोनों मंत्रालय सोते हुए मिले.

हैरानी की बात यह है कि इस बार भी जब प्याज के दाम तेजी से बढ़े तो सरकार सोती हुई मिली. हालांकि तथ्य यह है कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय में १४ जिंसों (प्याज सहित) की देश के ३७ बाजारों में खुदरा और थोक कीमतों की नियमित निगरानी की उच्च स्तरीय व्यवस्था है. यही नहीं, कई प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति भी समय-समय पर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों, आपूर्ति, उत्पादन और निर्यात-आयत पर निगाह रखती है. कैबिनेट की कीमतों पर एक अलग कमिटी है लेकिन यह जानते हुए भी कि बेमौसमी बारिश से प्याज की फसल खराब हो गई है और इसके कारण कीमतें बढ़ सकती हैं, किसी भी स्तर पर कोई अग्रिम पहल नहीं हुई.

ऐसा लगता है कि सबने महंगाई की सुरसा के आगे हथियार डाल दिए हैं. मनमोहन सिंह सरकार स्वीकार करे या न करे लेकिन यही सच है कि सरकार महंगाई से हार चुकी है. इसका सबूत यह है कि खुद प्रधानमंत्री मुद्रास्फीति की दर में कमी आने की समयसीमा लगातार बढ़ाते जा रहे हैं. पिछले साल कहा गया कि रबी की अच्छी फसल के बाद कीमतें काबू में आ जाएंगी लेकिन मार्च-अप्रैल में भी कीमतें बेरोकटोक बढ़ती रहीं. फिर कहा गया कि अच्छे मानसून और खरीफ की फसल से दिसंबर तक स्थिति सुधरने लगेगी. लेकिन अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि मार्च तक मुद्रास्फीति ५.५ प्रतिशत तक आ जायेगी.

इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि महंगाई से मुकाबले में सरकार कितनी दयनीय स्थिति में है. जाहिर है कि वह अपने बचाव में बहाने ढूंढने में लगी है. वह पिछले दो सालों से लगातार इस तेज महंगाई के लिए तीन कारण बता रही है. पहला, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जिंसों खासकर पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं.

दूसरे, देश में किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए उनकी फसलों की न्यूनतम कीमत में भी काफी बढ़ोत्तरी की गई है. तीसरे, लोगों की आय में इजाफा होने के कारण भी खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ी है. यू.पी.ए सरकार के मुताबिक इन तीनों कारणों से खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं.

लेकिन यह अर्ध सत्य है. सच यह है कि महंगाई इन तीन कारणों से इतर वजहों से बढ़ रही है. बेलगाम महंगाई के लिए एक साथ कई कारण जिम्मेदार हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण है, खाद्यान्नों की उत्पादन वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है बल्कि कई मामलों में गिरावट आ रही है. यह कृषि क्षेत्र में पिछले कई वर्षों की गतिरुद्धता का नतीजा है. दूसरे, कृषि जिंसों में वायदा कारोबार के कारण सट्टेबाजी काफी ज्यादा बढ़ गई है.

इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष २००९-१० में देश के सभी जिंस बाजारों में कुल ७७,६४,७५४ करोड़ रूपये का वायदा कारोबार हुआ जो वर्ष २००८-०९ की तुलना में ४८ प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि भारत के वर्ष ०९-१० के कुल सालाना बजट से ७.५ गुना ज्यादा है.

इसके साथ ही, कृषि उत्पादों के कारोबार में कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के घुसने के कारण जमाखोरी, कालाबाजारी और मुनाफाखोरी बढ़ी है. सरकार उनके आगे लाचार सी दिख रही है. इसके अलावा महंगाई का चौथा सबसे बड़ा कारण सरकार की अक्षमता, लापरवाही, नीतिगत विफलता और महंगाई से लड़ने के मामले में सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति का न होना है. अक्सर यह देखा जा रहा है कि महंगाई के मुद्दे पर न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकारों में कोई तालमेल नहीं है बल्कि केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच भी जमकर खींचातानी होती रहती है.

यही नहीं, सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि केन्द्र सरकार खुद सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है. खाद्य संकट और कीमतों के आसमान छूने के बावजूद सरकार के गोदामों में ३० नवंबर’१० को गेहूं और चावल का रिकार्ड ४.८४ करोड़ टन भंडार था जो बफर के नार्म के तीन गुने से ज्यादा है. ऐसे में, महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा? साफ है कि यू.पी.ए सरकार वास्तव में, महंगाई से ईमानदारी नहीं लड़ रही है और न लड़ना चाहती है. ऐसे में, महंगाई की सुरसा को तांडव करने की खुली छूट मिल गई है.

('दैनिक हरिभूमि' में २६ दिसंबर'१० को प्रकाशित)

शनिवार, दिसंबर 25, 2010

यह रहा बिनायक सेन को उम्र कैद देनेवाला ‘बनाना रिपब्लिक’

लोकतंत्र, न्याय और मानवाधिकारों का इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है
"और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में,
हाय,हाय! मैंने देख लिया उन्हें नंगा,
इसकी मुझे और सजा मिलेगी."

(डा. बिनायक सेन को सजा दिए जाने पर आक्रोश जाहिर करते हुए अपने मित्र और लेखक आशुतोष कुमार ने मुक्तिबोध की ये पंक्तियां फेसबुक पर डाली है. वहीँ से साभार.)

जैसीकि आशंका थी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और बाल रोग विशेषज्ञ डा. बिनायक सेन को रायपुर की स्थानीय अदालत ने देशद्रोह और राज्य के खिलाफ हिंसक तख्ता पलट के लिए षड्यंत्र करने जैसे आरोपों में उम्र कैद की सजा सुना दी. अरुंधती राय ने सही कहा कि क्या विडम्बना है कि भोपाल गैस कांड में हजारों बेकसूरों के नरसंहार के दोषियों को दो साल की सजा और डा. बिनायक सेन को उम्र कैद? आश्चर्य नहीं कि इस फैसले ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया है. न्याय, लोकतंत्र और मानवाधिकारों में यकीन रखनेवाले लोग सदमे में हैं.

सचमुच, लोकतंत्र, न्याय और मानवाधिकारों के साथ इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता है. आखिर डा. बिनायक सेन का कसूर क्या है? यह कि मेडिकल साइंस की इतनी बड़ी डिग्री लेकर प्रैक्टिस करने और रूपया पीटने के बजाय छत्तीसगढ़ जैसे अत्यंत गरीब राज्य में जाकर सबसे गरीबों की सेवा करना और उन गरीबों की आवाज़ उठाना?

या यह कि एक डाक्टर की तरह चुपचाप अपने काम से काम रखने और अपने आसपास चल रहे अन्याय पर खामोश रहने की बजाय उन्होंने खुलकर पुलिसिया जुल्मों, लूट और अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया है? या फिर यह कि उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार के बजाय भारतीय संविधान पर भरोसा किया जो अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर लोगों के मानवाधिकारों को किसी भी सरकार और पुलिस से ज्यादा अहमियत देता है?

इस सजा से एक बात तय हो गई है. पिछले दिनों सुपर उद्योगपति रतन टाटा ने राडिया टेप्स लीक्स किए जाने और निजता के अधिकार का उल्लंघन किए जाने के सन्दर्भ में देश के ‘बनाना रिपब्लिक’ में तब्दील हो जाने की आशंका व्यक्त की थी. इस सजा ने साबित कर दिया है कि देश ‘बनाना रिपब्लिक’ बन चुका है. यह एक राष्ट्रीय त्रासदी है कि एक बेहतर देश और समाज बनाने की लड़ाई लड़नेवाले जेल में उम्र कैद की सजा भुगतेंगे और क्रोनि कैपिटलिज्म के जरिये देश के कीमती संसाधन लूटनेवाले बाहर मौज करेंगे.

कहना पड़ेगा, जैसे आज सुबह पत्रकार साथी अवधेश ने फेसबुक पर लिखा ....
“आओ देशभक्त जल्लादों
पूँजी के विश्वस्त पियादों
उसको फांसी दे दो!”

अपने ही अंतर्विरोधों के कारण गतिरोध में फंस गई है कांग्रेसी अर्थनीति

कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि वह कार्पोरेट जगत की सेवा करे या गरीबों का ख्याल रखे?

कांग्रेसी अर्थनीति के अंतर्विरोध खुलकर सामने दिखने लगे हैं. इन अंतर्विरोधों के कारण अर्थव्यवस्था खासकर वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी के बावजूद कांग्रेसी राजनीति एक ऐसे गतिरोध में फंस गई है कि २००९ के चुनावों में जीत की चमक साल भर से भी कम समय में फीकी पड़ने लगी है. लेकिन पार्टी ने अपने १२५वें साल के ऐतिहासिक दिल्ली महाधिवेशन में जो आर्थिक प्रस्ताव पेश किया, उसमें न तो कोई नई दृष्टि और विचार है और न ही आर्थिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों का कोई हल.

उदाहरण के लिए महंगाई को ही लीजिए. यह ठीक है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष २०१०-११ की पहली छमाही में आर्थिक वृद्धि की दर ८.९ प्रतिशत तक पहुंच गई है लेकिन इस वृद्धि दर के साथ जुड़े कई अंतर्विरोधों में सबसे बड़ा अंतर्विरोध यह है कि महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है.

आश्चर्य नहीं कि एक ओर कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी अपने आर्थिक प्रस्ताव में यू.पी.ए सरकार को महंगाई से पूरी ईमानदारी और साहस के साथ निपटने और कीमतों पर लगातार नजर रखने की जरूरत पर जोर दे रही थी और दूसरी ओर, पूरे देश में प्याज की कीमतें चढ़ते-चढ़ते ६० से लेकर ९० रूपये किलो तक पहुंच गईं. कीमतों पर नजर रखना तो दूर, सरकार एक बार फिर सोती हुई पकड़ी गई.

जब प्याज संकट बिल्कुल सिर पर आ गया तो भी लोगों को राहत देने के लिए ठोस कदम उठाने के बजाय कृषि मंत्री का बयान आया कि कीमतों को नीचे आने में तीन सप्ताह का समय लग सकता है. वैसे कृषि मंत्री अपनी ऐसी भविष्यवाणियों के लिए मशहूर हो चुके हैं जिनसे महंगाई की आग कम होने के बजाय और भड़क उठती है.

सवाल है कि यू.पी.ए सरकार को प्याज की संभावित किल्लत का अंदाज़ा पहले क्यों नहीं लगा? कीमतों के आसमान पर पहुंच जाने के बाद उठाये गए कदम पहले नहीं उठाये जा सकते थे? मुद्दा सिर्फ प्याज का ही नहीं है. प्याज के अलावा भी लगभग सभी सब्जियों और अन्य जरूरी खाद्य वस्तुओं की महंगाई लगातार असहनीय स्तर पर बनी हुई है लेकिन सरकार के पास सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं है.

यहां तक कि खुद अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री भी पिछले एक साल से हर तीसरे-चौथे महीने मुद्रास्फीति की दर के नीचे आने की समय सीमा बढ़ाते जाते हैं. अब कांग्रेस महाधिवेशन में उन्होंने मुद्रास्फीति की दर के ५.५ प्रतिशत के आसपास ले आने की समय सीमा मार्च तय की है. इससे पहले उन्होंने दिसंबर तक मुद्रास्फीति के काबू में आने की उम्मीद जताई थी.

लेकिन पिछले डेढ़ से दो साल के अनुभव से साफ है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भले ही कांग्रेस महाधिवेशन ने मनमोहन सिंह सरकार से महंगाई के खिलाफ पूरे साहस और सच्चाई के साथ लड़ने का आह्वान किया हो लेकिन तथ्य यह है कि सरकार ने वास्तव में, महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं.

पिछले दो सालों से एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि सरकार पूरी ईमानदारी और साहस के साथ महंगाई से लड़ रही है. मजे की बात यह है कि पार्टी के आर्थिक प्रस्ताव में भी महंगाई के मुद्दे पर उन्हीं बहानों और तर्कों को दोहराया गया है जिनकी दुहाई खुद सरकार भी देती रहती है.

ऐसे में, जब पार्टी भी महंगाई के मुद्दे पर सरकार की भाषा बोल रही है तो इसकी उम्मीद कम है कि सरकार ईमानदारी और साहस से महंगाई रोकने के लिए कुछ करेगी? प्रस्ताव में राज्य खासकर कांग्रेसी राज्य सरकारों से महंगाई पर रोक के लिए जमाखोरों और मुनाफाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अपील की गई है. लेकिन यह अपील इतनी पिटी-पिटाई हो गई है कि शायद ही इसे कोई गंभीरता से ले रहा हो.

साफ है कि सरकार के साथ-साथ पार्टी के पास भी बढ़ती महंगाई के निदान की न कोई रणनीति है और न ही कोई इच्छा है. सच यह है कि यू.पी.ए सरकार महंगाई नहीं बल्कि सांख्यिकीय यानी पिछले साल की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल मार्च तक मुद्रास्फीति दर के कम होने का इंतज़ार कर रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि बढ़ती और बेलगाम महंगाई कांग्रेसी अर्थनीति का ऐसा अंतर्विरोध बन गई है जो पार्टी को आनेवाले चुनावों में राजनीतिक रूप से बहुत भारी पड़ सकती है. ऐसा ही दूसरा बड़ा और ज्यादा गहरा अंतर्विरोध यह है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद रोजगार के अवसर अपेक्षित गति नहीं बढ़ रहे हैं. इससे युवाओं में बेचैनी है और गुस्सा बढ़ रहा है.

आर्थिक प्रस्ताव में खुद पार्टी ने कहा है कि ‘रोजगार-विहीन विकास से हर कीमत पर बचा जाना चाहिए.’ लेकिन सच्चाई यह है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल के पहले तीन वर्षों में रोजगार वृद्धि की दर पिछले तीन दशकों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई.

एन.एस.एस के एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक २००५ से २००८ के बीच तीन वर्षों में कुल २४ लाख रोजगार के अवसर पैदा हुए यानी प्रति वर्ष आठ लाख की दर से जो रोजगार में औसतन सिर्फ ०.१७ प्रतिशत सालाना की वृद्धि दर दिखाता है. यह पिछले तीन दशकों की सबसे न्यूनतम वृद्धि दर है.उल्लेखनीय है कि १९९९ से २००४ के बीच रोजगार वृद्धि की दर सालाना औसतन २.८५ प्रतिशत थी.

इसी तरह खुद सरकारी श्रम ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००९-१० में बेरोजगारी की दर ९.४ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. ध्यान रहे कि अमेरिका में ९.५ प्रतिशत की बेरोजगारी दर पर ओबामा सरकार हिली हुई है. लेकिन भारत में ९.४ फीसदी की ऊँची बेरोजगारी दर के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी अभी भी तेज विकास दर का राग आलापने में लगे हुए हैं.

यही नहीं, रोजगार पैदा करने के सवाल पर पार्टी के आर्थिक प्रस्ताव में वही सरकारी जुमले और योजनाएं दोहराई गई हैं जिन्हें पिछले छह सालों से यू.पी.ए सरकार रट रही है. लेकिन रोजगार के प्रति सरकार और पार्टी के रवैये का पता इस तथ्य से लगता है कि आर्थिक प्रस्ताव में मनरेगा की ‘सफलता’ का ढोल पीटने के बावजूद सरकार १०० दिन रोजगार देने का वायदा पूरा करने में नाकाम रही है. खुद आर्थिक प्रस्ताव के मुताबिक, मनरेगा के तहत वर्ष २००९-१० में औसतन ५४ दिन का रोजगार ही दिया जा सका. इसी तरह, महंगाई में जबरदस्त बढ़ोत्तरी के बावजूद मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाने के सवाल पर सरकार और पार्टी चुप्पी साधे हुए हैं.

महंगाई और रोजगार के अलावा कांग्रेसी अर्थनीति का एक और बड़ा अंतर्विरोध यह है कि वह तेज विकास दर के साथ समावेशी विकास की बातें चाहे जितनी करे लेकिन तथ्य यह है कि तेज वृद्धि दर से पैदा हो रही समृद्धि का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच रहा है. यह समृद्धि समाज के एक बहुत छोटे वर्ग तक सीमित है और आम आदमी अभी भी हाशिए पर है. गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है.

नतीजा यह कि जमीन पर बेचैनी बढ़ रही है. किसान, मजदूर, युवा, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों में बढ़ती इस बेचैनी, असंतोष और गुस्से के कारण यू.पी.ए सरकार के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है. विभिन्न योजनाओं के लिए लोग जमीन देने को तैयार नहीं हैं. विरोध के कारण माइनिंग प्रोजेक्ट्स अधर में लटक गए हैं.

इस गतिरोध से बाहर निकलने का तरीका न तो मनमोहन सिंह सरकार को समझ में आ रहा है और न ही कांग्रेस पार्टी को. आर्थिक प्रस्ताव में पार्टी ने इस समस्या को स्वीकार किया है लेकिन इसका मुकम्मल हल उसके पास भी नहीं है. नतीजा, उसने सरकार से १८९४ के भूमि अधिग्रहण कानून में मुकम्मल संशोधन करने की अपील करते हुए उद्योगों को अपने मुनाफे का एक हिस्सा स्थानीय समुदाय खासकर आदिवासी समुदाय के साथ बांटने की बात कही है.

लेकिन करोड़ों भूमिहीनों का क्या होगा, इसके बारे में आर्थिक प्रस्ताव चुप है. इसी तरह, सरकारी खरीद में अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय के ठेकेदारों और आपूर्तिकर्ताओं को वरीयता देने की भी बात कही गई है. जाहिर है कि यह इन समुदायों के एक छोटे लेकिन प्रभावशाली इलीट हिस्से को खुश करने की कोशिश है जिससे गैर बराबरी घटने के बजाय और बढ़ेगी.

कुलमिलाकर, आर्थिक प्रस्ताव में कांग्रेस पार्टी की ऐसी कई दुविधाएं साफ दिखाई पड़ती हैं. वह तय नहीं कर पा रही है कि बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी को खुश करने के लिए सुधारों की गति को तेज करे या गरीबों के दुख-दर्द का ख्याल करे? वह वृद्धि दर को और तेज करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर, सेज से लेकर माइनिंग प्रोजेक्ट्स को जोरशोर से आगे बढ़ाये या गरीब आदिवासियों और पर्यावरण का ध्यान रखे? आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने पर जोर दे या पहले विकास के फल के न्यायोचित बंटवारे को प्राथमिकता दे? कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस की ये दुविधाएं उसके नौ पृष्ठों के लंबे-चौड़े आर्थिक प्रस्ताव में भी दूर होती नहीं दिखाई देती हैं.

नतीजा, तीखे होते आर्थिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को साधने में कांग्रेस की मध्यमार्गी अर्थनीति की असफलताएं उभरकर सामने आ गई हैं. आर्थिक प्रस्ताव इस असफलता का एक और दस्तावेज है जिसमें कांग्रेसी अर्थनीति की सीमाओं और संकट को साफ देखा जा सकता है. आश्चर्य नहीं कि पूरा दस्तावेज वित्त मंत्रालय या योजना आयोग के किसी नौकरशाह द्वारा तैयार रिपोर्ट ज्यादा मालूम होती है. इससे बेहतर प्रस्ताव तो सोनिया गांधी के नेतृत्ववाली एन.ए.सी तैयार कर सकती थी.

(दैनिक राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप में २५ दिसंबर'१० को प्रकाशित : http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17  पृष्ठ ३)

शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

अपने उपभोक्ताओं को बेवकूफ समझती है नोकिया

नोकिया को सबक सिखाएं, उसके मोबाइल फोन का बहिष्कार करें

राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस (२४ दिसंबर) पर नोकिया के खिलाफ सत्याग्रह अभियान की शुरुआत

यह सबको पता है कि नोकिया दुनिया की सबसे बड़ी मोबाइल निर्माता कंपनी है. लेकिन कितनी बड़ी? इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के १५० से अधिक देशों में कारोबार करने वाली नोकिया के १२० देशों में एक लाख तेईस हजार से अधिक कर्मचारी हैं. वर्ष २००९ में उसका सालाना वैश्विक कारोबार कोई ४१ अरब यूरो का था और उसने लगभग १.२ अरब यूरो का मुनाफा कमाया था. आज दुनिया के मोबाइल बाज़ार के ३० प्रतिशत पर नोकिया का दबदबा है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. सच पूछिए तो भारत के मोबाइल बाज़ार पर एक तरह से नोकिया का एकछत्र राज्य है.

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बाज़ार पर नोकिया की पकड़ ढीली हुई है और सस्ते भारतीय ब्रांडों ने उसे चुनौती देनी शुरू कर दी है लेकिन इसके बावजूद भारतीय बाज़ार में उसका हिस्सा ५४ प्रतिशत के आसपास बना हुआ है. इसका अर्थ यह हुआ कि २००९ में भारत में बिके कुल १० करोड़ मोबाइल फोन में से ५.४ करोड़ फोन नोकिया के थे. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नोकिया के लिए भारत कितना महत्वपूर्ण है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के मोबाइल बाज़ार के ३० प्रतिशत की तुलना में नोकिया का भारत के मोबाइल बाज़ार के ५४ प्रतिशत पर कब्ज़ा है. आज उसके वैश्विक कारोबार और मुनाफे का बड़ा हिस्सा भारत से आता है.

लेकिन जिस भारतीय बाज़ार से नोकिया का धंधा चल रहा है, उसके उपभोक्ताओं को कंपनी बेवकूफ समझती है. उन्हें अपने ठेंगे पर रखती है. नोकिया को अपने उपभोक्ताओं की बिल्कुल परवाह नहीं है. एक तो यह कंपनी अपने फोन पर भारी प्रीमियम के साथ ऊँची कीमत वसूल करती है. नोकिया के फोन की ऊँची कीमतों का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि लगभग सामान स्पेसिफिकेशन के भारतीय और चीनी फोन ५० से ७० प्रतिशत कम कीमतों पर बाजार में उपलब्ध हैं. नोकिया अपने फोन की ज्यादा कीमत इस आधार पर वसूल करती है कि वह न सिर्फ क्वालिटी के स्तर पर बेहतर फोन बेचती है बल्कि वह अपने सर्विस सेंटर्स के जरिये उपभोक्ताओं की समस्याओं को भी पूरी ईमानदारी और तत्परता से निपटती है.

लेकिन वास्तविकता यह है कि वह उपभोक्ताओं को बेवकूफ बनाने में लगी हुई है. उसकी न सिर्फ उपभोक्ताओं की परेशानियों और समस्याओं को हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि उसे उपभोक्ताओं से किए गए वायदों से भी मुकरते देर नहीं लगती है. नोकिया के किसी भी सर्विस सेंटर्स- नोकिया केयर पर चले जाइये, आपको सैकड़ों असंतुष्ट और नाराज उपभोक्ता मिल जाएंगे. किसी भी उपभोक्ता शिकायत पोर्टल पर चले जाइये, सबसे अधिक शिकायतें नोकिया के खिलाफ ही मिलेंगी. लेकिन नोकिया को उनकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है.

मैं भी नोकिया की वायदाखिलाफी का भुक्तभोगी

मैं खुद भी नोकिया की वारंटी में किए गए वायदों से मुकरने और वायदाखिलाफी का एक भुक्तभोगी हूँ. मैंने पिछले साल १३ फरवरी को दिल्ली के साऊथ एक्सटेंसन के स्टार मोबिटेल से बड़ी हसरतों के साथ नोकिया एन-८६ कुल १९५०० रूपये में ख़रीदा था. मेरे मोबाइल का आई.एम.ई.आई नंबर था- ३५८२७००३२०५७८०१. हालांकि मैं महंगा मोबाइल खरीदने के पक्ष में कभी नहीं रहता लेकिन इस मोबाइल के फीचर्स ने मुझे ऐसा ललचाया कि हिम्मत करके इसे खरीद ही लिया. इसमें ८ मेगापिक्सेल का कैमरा था. तस्वीरें खींचने के शौक के कारण ही यह फोन मैंने ख़रीदा जिसकी तस्वीरों की क्वालिटी शानदार थी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि फोन की क्वालिटी से मैं संतुष्ट था. ऐसा लगता था कि चलो, पैसा वसूल हुआ. उससे मैंने बहुतेरी तस्वीरें खींचीं. उससे खींची एक तस्वीर साथ में लगी है, आप भी देखिये. लेकिन इस फोन के साथ मेरा अच्छा समय ज्यादा दिन नहीं चला. तीन-चार महीने के अंदर ही यह फोन अक्सर हैंग करने लगा. बहुत मुश्किल होती थी लेकिन किसी तरह काम चलता रहा. किसी मित्र ने बताया कि सभी मल्टी-मीडिया फोन के साथ ये समस्या रहती है.

लेकिन छह महीने के अंदर अगस्त के आखिरी सप्ताह में फोन बिल्कुल बंद हो गया. वह चार्ज ही नहीं हो रहा था. चार्जर लगाने पर आता- चार्जर नाट सपोर्टेड या ऐसा ही कुछ, अब याद भी नहीं. बहरहाल, मैंने फोन को नोकिया के वसंत विहार स्थित नोकिया केयर में ४ सितम्बर’१० जमा कराया. फोन वारंटी पीरियड में था. मुझे उम्मीद थी कि नोकिया जैसी बड़ी और सम्मानित कंपनी न सिर्फ वारंटी का सम्मान करेगी बल्कि मेरा फोन जल्दी से ठीक करके देगी. लेकिन पहले हप्ते तो नोकिया केयर टरकाता रहा कि अभी कंपनी से फोन आया नहीं है. मैंने नोकिया हेल्पलाइन को भी खटखटाया लेकिन कोई सात-आठ दिन तक कोई जवाब नहीं मिला.

लिक्विड इन्ग्रेशन यानि वारंटी से मुकरने के सौ बहाने  
इसके बाद एक दिन अचानक नोकिया केयर से फोन आया कि आपके फोन में ‘लिक्विड इन्ग्रेसन’ यानी फोन में पानी चला गया है, इसलिए यह अब वारंटी में नहीं है और आपको अगर फोन ठीक करवाना है तो कोई सवा ४ हजार रूपये जमा करवाइए. मैं तो जैसे आसमान से गिरा. फोन में पानी! भला कैसे? मुझे बिल्कुल याद नहीं आता कि कभी ऐसी कोई स्थिति आई हो कि फोन में एक बूंद पानी गया हो. मुझे बहुत हैरानी हो रही थी और गुस्सा भी आ रहा था. मैंने साफ कह दिया कि कंपनी मेरे साथ मजाक कर रही है और वारंटी से बचने के लिए बहाने बना रही है. मैं फोन बनवाने के पैसे नहीं दे सकता, चाहे जो हो जाए.

नतीजा, नोकिया केयर ने बिना मरम्मत के मेरा फोन वापस कर दिया. वह डेड फोन आज भी घर में नोकिया की वायदाखिलाफी के पसबूत के रूप में मौजूद है. इसके बाद मैंने नोकिया केयर लाइन को कोई दस ई-मेल भेजे. पहला ई-मेल १३ सितम्बर को और फिर २३ सितम्बर को आखिरी. इस बीच कोई नौ ई-मेल भेजे लेकिन कंपनी घुमा-फिराकर अपनी बात पर अडी रही कि फोन अब वारंटी में नहीं है क्योंकि उसमें लिक्विड इन्ग्रेशन है. मैं समझाते-समझाते थक गया कि नहीं, ऐसा नहीं है. लेकिन कंपनी मानने को तैयार नहीं थी. थक-हार कर मैंने तय किया कि अब नोकिया से अपील करने का कोई फायदा नहीं.

इसलिए, २३ सितम्बर’१० को मैंने भारत सरकार के उपभोक्ता हेल्प लाइन पर आनलाइन शिकायत दर्ज करा दी. उस शिकायत की आई.डी है- १७२८१/२/२०१०. लेकिन उपभोक्ता अधिकारों की गुहार लगानेवाली सरकार की ओर से आज तक कोई जवाब नहीं आया. मैंने कंज्यूमर वोईस पर भी शिकायत दर्ज कराई लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसा लगा कि उपभोक्ता अधिकारों के संरक्षण के नाम पर हर जगह एक मजाक चल रहा है. उन्हें एक निरीह प्राणी मानकर उन्हें बेवकूफ बनाया जा रहा है. बड़ी कंपनियों के आगे किसी की नहीं चल रही है. वे वारंटी के नाम पर अपने ग्राहकों को धोखा दे रही हैं.
जागो ग्राहक, जागो: नोकिया के खिलाफ अभियान की शुरुआत

लेकिन मैंने तय किया है कि इस मामले में चुप नहीं बैठना है. नोकिया को उसकी वायदाखिलाफी के लिए सबक सिखाना जरूरी है. अगर मैं भी उसके अन्य हजारों ग्राहकों की तरह निराश होकर चुप बैठ गया तो नोकिया भविष्य में भी अपने ग्राहकों के साथ ऐसे ही मजाक करती रहेगी. इसलिए आज राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस से नोकिया की वायदाखिलाफी और उपभोक्ताओं को बेवकूफ बनाने की उसकी नीति के खिलाफ एक अभियान शुरू कर रहा हूँ. इसमें आपके सक्रिय सहयोग की जरूरत है.

अभियान की शुरुआत में आप सभी से निवेदन है कि आप नोकिया इंडिया को उसके दायित्वों की याद दिलाएं. उसके मोबाइल फोन न खरीदें. उसका पूरी तरह से बहिष्कार करें. अगर आपकी खुद की कोई शिकायत हो तो यहां दर्ज करें.

फेसबुक पर कमेन्ट करें

लेकिन शुरुआत फेसबुक पर नोकिया इंडिया के पेज पर जाकर उसे उपभोक्ताओं का सम्मान करने की हिदायत देते हुए कमेन्ट से करें. उसे यह भी बताएं कि आप उसके फोन नहीं खरीदेंगे. शुरुआत यहां से करें ताकि नोकिया को भी पता चले कि वह अपने उपभोक्ताओं को हमेशा के लिए बेवकूफ नहीं बना सकती है. आप हिंदी या अंग्रेजी में अपने कमेन्ट लिख सकते हैं.

आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर भी इस बारे में लिख सकते हैं. अपने वाल पर भी लिख सकते हैं.

फिर आप शामिल हो रहे हैं न इस अभियान में?

(नोट: जल्दी ही, नोकिया की भारत स्थित फैक्टरी में मजदूरों के साथ हो रही ज्यादती और श्रम कानूनों के उल्लंघन पर भी लिखूंगा)

बुधवार, दिसंबर 22, 2010

दिल तो बच्चा ही रह गया जी !

चार सालों में कुछ नहीं बदला है समाचार चैनलों की दुनिया में

“लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं. कुछ तमाशा हो, कुछ ड्रामा हो, वह जितनी बार दिखाया जाए, उतनी बार दर्शकों की भारी तादाद उसे देखने खिंची चली आएगी. चाहे मटुकनाथ-जूली की प्रेमकथा हो या मीका-राखी का ‘किस एपिसोड’, लोगों का जी नहीं भरता देख-देखकर.”
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“न्यूज चैनलों के बदलते मिजाज को लेकर कुछ लोग खासकर बुद्धिजीवी किस्म के लोग और अखबार वाले खामखां चिंता व्यक्त कर रहे हैं.बदलते वक्त के साथ न्यूज चैनलों के मिजाज में बदलाव आ रहा है तो गलत क्या है?....हम बुद्धिविलास करके तो चैनल नहीं चला सकते...क्या आप चाहते हैं कि जब दिन भर जिंदगी की जद्दोजहद से जूझकर आदमी घर लौटे तो हम उसे रोना-धोना दिखाएं? छाती पीटने लगें कि देश का विकास नहीं हो रहा है? अगर उसे एश्वर्या राय या रैंप पर चलती कोई माडल या इंदौर में गीत गाती आकांक्षा की ही कहानी दिखाते हैं तो गलत क्या है?”
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“अरे, आजकल न्यूज चैनलों को ये क्या हो गया है. ‘कैसी-कैसी बकवास स्टोरी चला रहे हैं’- मेरी नजर में ऐसे एलार्म की अभी जरूरत नहीं है. इस तरह से रिएक्ट करना जल्दबाजी है. अभी तो न्यूज चैनल लड़कपन के दौर से निकलकर बड़े और समझदार होने के दौर में पहुंच ही रहे हैं...मुझे लगता है कि ऐसी उटपटांग चीजों का दौर अगले ढाई-तीन सालों तक चलेगा. उसके बाद चैनल भी कम होंगे और उनकी क्वालिटी भी सुधरेगी.”
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“यदि आप लोग समाज सेवा या किसी मिशन के भाव से पत्रकारिता करने के लिए इस पाठ्यक्रम में पढ़ रहे हैं तो आप अपना समय खरन कर रहे हैं. मेरी आपको सलाह है कि आप तुरंत अपने गांव या शहर लौट जाएं और अपने मां-बाप के सपनों को टूटने से बचाएं...हां, हम वही दिखाते हैं जो देश की जनता देखना चाहती है. हमें अपना चैनल चलाना है. करोड़ों रूपया हमने चैनल शुरू करने में लगाया है. लाखों रूपया रोज हम लोगों को सूचनाएं पहुंचने के लिए खर्च करते हैं. यदि हमें पैसा वापस नहीं मिलेगा तो हम क्या अपना चैनल बंद करके घर बैठ जाएंगे?”
क्या आप बता सकते हैं कि ये ‘महान विचार’ किसके हैं? आपका अंदाज़ा बिल्कुल सही है कि ये विचार चैनलों से जुड़े लोगों के ही हो सकते हैं. तथ्य यही है कि ये सभी समाचार चैनलों के मौजूदा और पूर्व संपादक हैं. इनमें से क्रम से सबसे पहले ‘लोकप्रिय और नंबर एक’ चैनल ‘आज तक’ के संपादक कमर वहीद नकवी, फिर ‘आपको आगे रखनेवाले’ स्टार न्यूज के पूर्व संपादक उदय शंकर, उनके बाद ‘हमेशा सच दिखाने’ का दावा करनेवाले एन.डी.टी.वी-इंडिया के संपादक रहे दिबांग और फिर ‘खबर हर कीमत’ पर वाले चैनल आई.बी.एन-७ के संपादक आशुतोष के विचार हैं.

साथ ही यह भी जान लें कि ये ‘महान विचार’ जनवरी’२००७ में साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के मीडिया विशेषांक में छपे थे. यानी आज से कोई चार साल पहले. इन विचारों को एक बार फिर यहां उद्धृत करने के पीछे इरादा यह था कि देखा जाए कि इन चार सालों में चैनलों की दुनिया में कितना बदलाव आया है? कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है.

लेकिन चैनलों की दुनिया लगता है, वहीँ ठहरी हुई है. आज से चार साल पहले चैनल जो कुछ और जैसे दिखा रहे थे, उसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है. आज भी चैनलों खासकर हिंदी समाचार चैनलों पर पांच सी- सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, सेलेब्रिटीज और कामेडी का ही बोलबाला है.

ऐसा लगता है कि इन चार सालों में चैनलों का मानसिक और बौद्धिक विकास रुक सा गया है. चैनलों ने जहां से शुरू किया था, वहां से आगे बढ़ने के बजाय उनमें लगातार नीचे गिरने की ही होड़ चल रही है. असल में, आज से चार-पांच साल पहले टी.वी चैनलों पर दिखाए जानेवाले कंटेंट की क्वालिटी और स्तर को लेकर संपादकों का तर्क हुआ करता था कि चैनलों की उम्र अभी कम है.

चैनलों की लफंगई पर कुछ संपादकों को लगता था कि यह उनके ‘लड़कपन का दौर’ (राजदीप सरदेसाई के मुताबिक पागलपन) है और अगले कुछ वर्षों में उनमें मैच्योरिटी आ जायेगी. लेकिन मैच्योरिटी तो दूर, उम्र बढ़ने के बावजूद ऐसा लगता है कि चैनलों का दिल अभी भी ‘बच्चा’ ही है. लड़कपन ही स्थाई भाव बन गया है.

यह ठीक है कि अख़बारों की उम्र की तुलना में चैनलों के ये चार साल और कुल १० साल की उम्र कुछ भी नहीं हैं. लेकिन कई बार हम दूसरों के अनुभव से भी सीखते हैं. लगता है कि चैनलों ने दूसरों के अनुभवों से तो दूर अपने खुद के अनुभव से भी कुछ न सीखने की कसम सी खा ली है. नतीजा, चैनलों का, बकौल राजदीप सरदेसाई, पागलपन बढ़ता ही जा रहा है. इससे चैनलों के अंदर निराशा, क्षोभ, कुंठा, हताशा, तनाव और पस्तहिम्मती का आलम है.

आश्चर्य नहीं कि कई संपादकों ने जो कल तक बढ़-चढ़कर चैनलों के बचाव में तर्क दिया करते थे, वे अब अपनी नैतिक हार स्वीकार करने लगे हैं. यही नहीं, जिन्होंने चैनलों में एथिक्स को बाहर का दरवाजा दिखा दिया था, राडियागेट के बाद वे ही एथिक्स की दुहाई देने लगे हैं. एथिक्स एक बार फिर फैशन में है. लेकिन क्या इससे चैनलों की दुनिया में कुछ बदलेगा? शायद नहीं. कारण, जब तक चैनलों का टी.आर.पी एजेंडा इंडिया टी.वी तय कर रहा है और सभी उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं, तब तक किसी बदलाव की उम्मीद करना बेकार है.

(समाचार पत्रिका 'तहलका' के ३१ दिसंबर के अंक में प्रकाशित)

रविवार, दिसंबर 19, 2010

बड़ी पूंजी को खुश करने में जुटे युवराज

राहुल गांधी की निर्विवाद छवि गढ़ने में जुटी है कांग्रेस

ग़ालिब का एक बहुत मशहूर शेर है:
“थी खबर गर्म कि उडेंगे ग़ालिब के पुर्जे,
देखने हम भी गए, पै तमाशा न हुआ.”

कांग्रेस महाधिवेशन में भगवा उग्रवाद तो दूर किसी के पुर्जे नहीं उड़े. अन्यथा राहुल गांधी के भाषण को लेकर मीडिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं में खासी उत्तेजना थी. खबरें थीं कि विकीलिक्स के खुलासे के सन्दर्भ में राहुल इस भाषण में संघ परिवार पर हमला बोलेंगे. यह कि भगवा उग्रवाद की ऐसी-तैसी कर देंगे. लेकिन जैसीकि मुझे उम्मीद थी, राहुल गांधी ने बिल्कुल जैसे दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, उस अंदाज़ में लिखित भाषण पढ़ते हुए भगवा उग्रवाद पर एक शब्द भी नहीं कहा.

ऐसा लगा कि राहुल गांधी खुद तो अखबार आदि नहीं ही पढ़ते हैं, वे यह भी मानकर चलते हैं कि उनके कार्यकर्ता और नेता आदि भी अखबार आदि नहीं पढ़ते, जहां भगवा उग्रवाद पर उनका कथित बयान सुर्ख़ियों में छाया हुआ है. लगता है कि वे अपनी ही बनाई और राजनीतिक रूप से एक बिल्कुल साफ-सुथरी (sanitized) दुनिया में रहते हैं, जहां विवादों और ऐसे मुद्दों की जगह नहीं है जिनपर साफ स्टैंड लेने पर कुछ गंवाने का खतरा हो. स्वाभाविक है कि राहुल गांधी ने विकीलिक्स खुलासों में अपने कथित बयान को लेकर पिछले तीन दिनों से जारी राजनीतिक विवाद पर एक शब्द नहीं बोला.

अलबत्ता, राहुल गांधी का भाषण काफी चतुराई के साथ ऐसे तैयार किया गया था कि उससे एक ऐसे संवेदनशील युवा नेता की छवि उभरे जो आम आदमी की चिंता में दुबला हुआ जा रहा है. लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस भाषण के जरिये राहुल गांधी ने देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश करते हुए यह सन्देश देने की कोशिश की कि सुधारों की गति तेज की जायेगी. तर्क औए दावे वही थे जो प्रधानमंत्री से लेकर हर छोटा-बड़ा मंत्री दोहराता रहता है कि सुधारों की गति तेज करने से ही वृद्धि दर बढ़ेगी और लोगों के लिए नए अवसर पैदा होंगे. भाषण का यह हिस्सा उन्होंने अंग्रेजी में पढ़ा क्योंकि वह कार्यकर्ताओं के लिए नहीं था.

असल में, पिछले कुछ महीनों से देश में बड़ी पूंजी यानी कारपोरेट क्षेत्र आर्थिक सुधारों की धीमी पड़ती गति और कुछ मामलों में कथित तौर पर निवेश विरोधी फैसलों से चिंतित, नाराज और बेचैन सा दिख रहा है. यही नहीं, कारपोरेट हितों के टकराव में पूरी सरकार पंगु सी हो गई है. खुद राहुल गांधी ने जिस तरह से वेदांता के नियामगिरी प्रोजेक्ट के मामले में रूख लिया, उससे कारपोरेट क्षेत्र काफी बेचैन था. जाहिर है कि कारपोरेट क्षेत्र की नाराजगी और उपेक्षा युवराज के राजनीतिक भविष्य के लिए खतरा बन सकता था. इसलिए जल्दी से जल्दी स्पष्टीकरण जरूरी था. आज राहुल के भाषण में वह सफाई आ गई.

साफ है कि राहुल गांधी की प्राथमिकताएं क्या हैं? उन्हें भगवा उग्रवाद और संघ साम्प्रदायिकता पर अपनी राजनीतिक स्थिति स्पष्ट करने और अमेरिकी राजदूत को कही गई बात को दुहराने के जरिये देश के अल्पसंख्यक समुदाय को आश्वस्त करने का राजनीतिक साहस दिखाने के बजाय कारपोरेट क्षेत्र को आश्वस्त करना जरूरी लगा. कांग्रेस ने यह काम कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के हवाले कर दिया है जिनकी खुद की विश्वसनीयता का आलम यह है कि खुद पार्टी ही उनके बयानों से अपने को अलग करते देर नहीं लगाती है.

शनिवार, दिसंबर 18, 2010

राहुल के कहे पर लीपापोती क्यों कर रही है कांग्रेस?

‘हिंदू’ शब्द सुनते ही कांपने लगती है कांग्रेस

विकीलिक्स के इस खुलासे के बाद कांग्रेस को सफाई देते हुए पसीने छूट रहे हैं कि युवराज राहुल गांधी ने पिछले साल अमेरिकी राजदूत से बातचीत के दौरान कहा था कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों के जवाब में उभर रहे हिंदू उग्रवादी संगठन देश के लिए ज्यादा बड़े खतरे हैं. कांग्रेस जोरशोर से डैमेज कंट्रोल यानी राहुल के कहे पर लीपापोती करने औए एक तरह से उस बयान से पीछा छुडाने में जुट गई है. कांग्रेस की घबराहट साफ दिख रही है.

पहले उस बयान को ‘साजिश’ बताकर ख़ारिज करने की कोशिश की गई. फिर आनन-फानन में खुद युवराज के नाम से ‘सभी तरह के आतंकवाद और साम्प्रदायिकता को खतरा’ बताते हुए उनसे सतर्क रहने की जरूरत बतानेवाला और राजनीतिक रूप से शाकाहारी बयान जारी किया गया. इसके तुरंत बाद कांग्रेस के धाकड प्रवक्ताओं यानी स्पिन डाक्टर्स को लीपापोती के लिए उतार दिया गया. लेकिन हालत यह थी कि इन स्पिन डाक्टर्स को भी सीधे सवालों का जवाब देते नहीं बन रहा था. वे युवराज के बयान को न तो पूरी तरह से नकार पा रहे थे और न ही स्वीकार कर पा रहे थे.

नतीजा, जिस काम में वे सबसे अधिक पारंगत हैं यानी लीपापोती, अपनी क्षमता भर वे यही करने में जुटे रहे. आतंकवाद के खिलाफ कांग्रेस की कुर्बानियों की दुहाईयाँ देकर मुद्दा बदलने की कोशिश करते रहे लेकिन उनकी लड़खड़ाहट साफ देखी और सुनी जा सकती है. सवाल है कि कांग्रेस इतनी घबराई हुई सी क्यों है? वह डटकर राहुल गांधी का बचाव क्यों नहीं कर पा रही है? आखिर राहुल गांधी ने ऐसा क्या गलत कह दिया है जिसके बचाव में कांग्रेस के पसीने छूट रहे हैं?

सच यह है कि राहुल गांधी ने कुछ भी गलत नहीं कहा. सैद्धांतिक रूप से यह बिल्कुल सही है कि भारत ही नहीं भारत जैसे किसी भी देश में बहुसंख्यक समुदाय के उग्रवादी और आतंकवादी समूहों से ज्यादा खतरनाक और आत्मघाती और कुछ नहीं हो सकता है. इससे न सिर्फ अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा, डर, गुस्सा, अलगाव, हताशा और प्रतिक्रिया पैदा होती है बल्कि बहुसंख्यक समुदाय खुद अपने अंदर के विभिन्न समुदायों को निशाना बनाने लगता है. जर्मनी में हिटलर का नाजीवाद बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और आक्रामकता का उदाहरण है. उसने जर्मनी में क्या किया और जर्मनी का क्या हुआ, यह जगजाहिर है.

इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि भारत में लश्कर-ए-तैयबा और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन को जमीन पिछले २५ वर्षों में देश में रामजन्म भूमि आंदोलन के जरिये भड़काई गई उग्र हिंदू साम्प्रदायिकता के कारण मिली है. अच्छी बात यह है कि अभी भी देश में मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा ऐसे संगठनों के खिलाफ है. लेकिन लाल कृष्ण अडवाणी, बाल ठाकरे और नरेन्द्र मोदी और पूरे भगवा संगठनों ने देश में जितना जहर घोला है, वह लश्कर जैसे आतंकवादी संगठनों के आतंकवादी हमलों में हुए नुकसान से कहीं ज्यादा है.

यह सही है कि लश्कर जैसे संगठनों का फायदा पाकिस्तान और कई विदेशी ताकतों ने उठाया है जिनमें अमेरिका भी एक है. लेकिन इस आधार पर भगवा संगठनों की भूमिका को न तो अनदेखा किया जा सकता है और न ही उन्हें माफ़ किया जा सकता है. लेकिन इस सच को साहस के साथ खड़ा होकर कहने में कांग्रेस की सांसे फूलने लगती है क्योंकि कांग्रेस भी इस सांप्रदायिक राजनीति करने के आरोपों से बच नहीं सकती है. असल में, कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह जिस नरम हिंदुत्व की राजनीति करती है, उसमें हिंदू उग्रवाद जैसी परिघटना के खिलाफ खुलकर बोलने की गुंजाईश नहीं है. दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय को भी भाजपा और भगवा संगठनों का डर दिखाकर अपने वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करना है.

यही कारण है कि कांग्रेस में न सिर्फ सच बोलने की हिम्मत नहीं है बल्कि वह एक साथ कई सुरों में बोलने के खेल की शातिर खिलाड़ी हो गई है. आश्चर्य नहीं कि एक ओर पार्टी नेतृत्व नरम हिंदुत्व के प्रतीकों के साथ खड़ा दिखाई देता है, वहीँ कांग्रेस का एक हिस्सा कभी दिग्विजय सिंह और कभी चिदंबरम के मुंह से हिंदू उग्रवाद या भगवा आतंकवाद जैसी बातें करके मुस्लिम समुदाय को लुभाने की कोशिश करता नजर आता है. इसके बावजूद हर मौके पर पार्टी ऐसे बयानों से हाथ झाडकर खड़ी हो जाती है. जाहिर है कि नरम हिन्दुत्व की राजनीति कर रही कांग्रेस अपने युवराज को अपनी लाइन से दूर कैसे जाने दे सकती है.

लेकिन कांग्रेसी दोमुंहेपन का यह राजनीतिक खेल अब इतना खुल चुका है कि तमाम सफाई के बावजूद कांग्रेस की राजनीतिक मक्कारी साफ झलकने लगी है. सच यह है कि राजनीतिक और वैचारिक रूप से कांग्रेस ने भाजपा और भगवा साम्प्रदायिकता के आगे समर्पण कर दिया है. अन्यथा कोई कारण नहीं है कि राहुल गांधी ने जिस राजनीतिक सच्चाई को अमेरिकी राजदूत को बताना जरूरी समझा, उसे पूरे देश के सामने कहने में कांग्रेस को पसीने छूट रहे हैं.

निश्चय ही, यह राहुल गांधी की राजनीतिक परीक्षा है कि जिस राजनीतिक सच्चाई को वह एक गलत जगह शेयर कर रहे हैं, उसे क्या खुलकर देश के सामने कह सकते हैं? क्या युवराज में यह राजनीतिक साहस है?

पटना,१९ दिसंबर'१०