सोमवार, जनवरी 19, 2009

गेंद फिर समाचार चैनलों के पाले में

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के इस आश्वासन के बाद समाचार चैनलों और यूपीए सरकार के बीच शुरू हुआ टकराव फिलहाल टल गया है कि सरकार मीडिया की आजादी में किसी तरह का कोई दखल नहीं करना चाहती है और आतंकवादी हमले जैसी आपात स्थितियों की कवरेज के बारे में कोई भी दिशा-निर्देश जारी करने से हले इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों से व्यापक विचार-विमर्श किया जाएगा. बदले में समाचार चैनलों के संपादकों और उनके संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन यानी एनबीए ने प्रधानमंत्री को आश्वासन दिया है कि वे सेल्फ रेगुलेशन की प्रक्रिया के तहत आपात स्थितियों की कवरेज के लिए खुद द्वारा तैयार इमरजेंसी प्रोटोकॉल का पालन सुनिश्चित करेंगे.
 
ऐसा लग सकता है कि समाचार चैनलों के नियमन के मुद्दे पर केंद्र सरकार और चैनलों के बीच पिछले डेढ़-दो वर्षों से जारी घोषित-अघोषित टकराव में एक बार फिर चैनलों की जीत हुई है. सच पूछिए तो प्रधानमंत्री ने गेंद एक बार फिर समाचार चैनलों और एनबीए के पाले में डाल दी है. अब एनबीए और समाचार चैनलों को आत्म-नियमन की प्रक्रिया के तहत खुद से तैयार पत्रकारीय आचार संहिता और दिशा-निर्देशों को पालन की गारंटी करनी होगी. समाचार चैनल अब अपनी गलतियों और विचलन के लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा पाएंगे. यही नहीं, अब यह एनबीए की जिम्मेदारी होगी कि वह अपने दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले चैनलों के खिलाफ कार्रवाई करे.
 
दरअसल, समाचार चैनलों ने नियमन के मु्द्दे को सार्वजनिक मुद्दा बनाकर खुद के कामकाज और कवरेज/कंटेट को आम दर्शक के बीच सार्वजनिक जांच-पड़ताल और चर्चा का विषय बना दिया है. यह नई स्थिति उन्हें अपने कवरेज/कंटेट और कामकाज के लिए आम जनता के प्रति उसी तरह जवाबदेह बना देती है, जैसी जवाबदेही की अपेक्षा समाचार मीडिया राजनेताओं, नौकरशाही और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं और व्यक्तियों से करता है. आत्म नियमन की प्रकिया, बाहरी नियमन यानी सरकारी नियमन की तुलना में कहीं अधिक जिम्मेदारी और जवाबदेही की मांग करती है. उम्मीद करनी चाहिए कि समाचार चैनल और उनके संपादक अत्म-नियमन में निहित अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी को शब्दशः और उससे अधिक उसकी वास्तविक भावना के साथ स्वीकार करेंगे. उनके व्यवहार पर ही आत्म-नियमन की व्यवस्था का भविष्य टिका हुआ है. उनकी भविष्य की गलतियों, विचलनों और फिसलनों से आत्म-नियमन की व्यवस्था सवालों के घेरे में आ सकती है.
 
यही नहीं इस कसौटी पर समाचार चैनलों की विफलता को आत्म-नियमन की व्यवस्था की विफलता के रूप में पेश किए जाने का खतरा भी मौजूद है. नियमन की आड़ में नियंत्रण का खतरा टला नहीं है. समाचार चैनलों को यह जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा है. उन्हें याद रखना चाहिए कि कुछ समाचार चैनलों ने पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारीय उसूलों, मर्यादाओं, मूल्यों और परंरपराओं की धज्जियां उड़ाई है उसके कारण उन्होंने आम दर्शकों के एक बड़े वर्ग का विश्वास खोया है.
 
अफसोस की बात है कि कुछ चैनलों और उनके संपादक ने अपनी पत्रकारीय विचलनं और फिसलनों को उचित और न्यायसंगत ठहराने में कोई संकोच नहीं दिखाया है. पिछले कुछ समय से एक भ्रम सा फैल गया है कि गलत और सही कुछ नहीं होता है. कोई अच्छी और बुरी पत्रकारिता नहीं होती. जो सफल है, वही अच्छा और सही है.
 
आज मीडिया टीआरपी का बंधक बन गया है. उसकी आजादी के लिए सरकारी हस्तक्षेप से कहीं बड़ा खतरा यह टीआरपी बन गई है जिसने चैनलों को एक ऐसी अंधी दौड़ में फंसा दिया है जहां वे पत्रकारीय नैतिकता, उसूलों और मूल्यों को भी दांव पर लगाने में संकोच नहीं कर रहे हैं. हालांकि अगर मीडिया पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार और बेलगाम हो जाए तो भी सरकार को उसे नियंत्रित करनी की इजाजत नहीं दी जा सकती है. सरकारी नियमन यानी नियंत्रण के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकारी गैर-जिम्मेदारी और निरंकुशकता मीडिया की गैर-जिम्मेदारी की तुलना में कहीं अधिक घातक और नुकसानदेह है.
 
सरकार हस्तक्षेप को टालने के लिए जरूरी है कि चैनलों के संपादक और पत्रकार अपनी भूमिका को खुलकर एसर्ट करें. आत्म-नियमन की प्रणाली को स्थापित करने के लिए एक-दूसरे चैनल की गलतियों और विचलनों पर एनबीए के अंदर और सार्वजनिक तौर पर आलोचन-प्रत्यालोचना का खुला और लोकतांत्रिक माहौल तैयार करें. इसकी पहल खुद की गलतियों/विचलनों को खुले तौर पर तत्काल स्वीकार करके और उन्हें सुधार कर की जा सकती है. देश के कई बड़े अखबार ऐसा पहले से कर रहे हैं. इससे उनकी साख बढ़ी है और समाचार कक्षों में जवाबदेही और जिम्मेदारी का भाव.
 
 
18 जनवरी, 2009 के हिंदुस्तान में प्रकाशित