शनिवार, नवंबर 10, 2007

पूर्ण परिवर्तनीयता की आग से खेलने का फैसला...

ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने पूर्ण परिवर्तनीयता की आग से खेलने का फैसला कर लिया है। हालांकि वह आग के खतरों को जानती है लेकिन वह आग में उंगली जलाकर उसके खतरे को महसूस करने पर आमादा दिख रही है। रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता को लेकर सरकार की बेचैनी चौंकानेवाली है। पूर्ण परिवर्तनीयता का सड़क मार्ग तैयार करने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा गठित एसएस तारापोर समिति की रिपोर्ट जिस तेजी से आई है और उसे लेकर मनमोहन सिंह सरकार जैसा उत्साह दिखा रही है, उससे साफ है कि वह इस मुद्दे पर और सोचने-विचारने और इंतजार करने के लिए तैयार नहीं है।

इसलिए यह कहा जाए तो गलत न होगा कि यूपीए सरकार ने रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता का मन पहले से ही बना लिया है और तारापोर समिति का गठन उसने सिर्फ एक औपचारिकता पूरी करने के लिए किया था। ध्यान रहे कि तारापोर समिति का गठन रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के फायदे-नुकसान का आकलन और भारत के लिए उसकी प्रासंगिकता की पड़ताल करने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इस समिति का गठन रिजर्व बैंक ने इस साल मार्च में प्रधानमंत्री के मुंबई में दिए इस बयान या कहिए निर्देश के बाद किया था कि पूर्ण परिवर्तनीयता की दिशा में आगे बढ़ने का समय आ गया है। तारापोर समिति को सिर्फ पूर्ण परिवर्तनीयता का सड़क मार्ग तैयार करना था।

समिति ने इस सीमित जिम्मेदारी को बखूबी पूरा कर दिया है। उसने अगले पांच वर्षों में यानि वर्ष 2011 तक तीन चरणों में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता का लक्ष्य रखा है। उसने ऐसी कई वित्तीय, मौद्रिक और बाजार संबंधी नीतिगत सिफारिशें की हैं जिन्हें पूरा करने के बाद ही रुपये को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया जा सकता है। तारापोर समिति की सिफारिशों का कुल लब्बोलुवाब यह है कि पूर्ण परिवर्तनीयता की दिशा में क्रमश: और फूंक-फूंककर कदम बढ़ाया जाना चाहिए। हालांकि खुद समिति की सिफारिशों में काफी जल्दबाजी दिखायी पड़ती है। यहां तक कि वह अगले वित्तीय वर्ष का इंतजार करने के बजाय चालू वित्तीय वर्ष के बाकी बचे छह महीनो में ही पूर्ण परिवर्तनीयता की दिशा में कई कदम उठाने की सिफारिश करती है।

लेकिन मनमोहन सिंह सरकार और जल्दी में है। उसमें तारापोर समिति के सुझाए सड़क मार्ग पर चलने और उसके नियमों का पालन करने का भी धैर्य नहीं है। इस जल्दबाजी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने रिपोर्ट आने के दो दिन के अंदर ही तारापोर समिति की इस महत्वपूर्ण सिफारिश को खारिज कर दिया कि शेयर बाजार में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) द्वारा निवेश के लिए इस्तेमाल किए जा रहे पार्टिसिपेटरी नोटस (पी-नोट्स) की अपारदर्शी व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। वित्त मंत्रालय का कहना है कि शेयर बाजार में पी-नोट्स की व्यवस्था जारी रहेगी। उसका तर्क है कि सालभर पहले गठित अशोक लाहिरी समिति ने पी-नोट्स को जारी रखने की सिफारिश की थी।

कहने की जरूरत नहीं है कि पी-नोट्स के बारे में अशोक लाहिरी समिति की राय से तारापोर समिति अच्छी तरह से वाकिफ थी क्योंकि लाहिरी समिति में रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि ने पी-नोट्स को जारी रखने को लेकर अपना मतभेद स्पष्ट दर्ज कराया था। दरअसल, शेयर बाजार में एफआईआई के जरिए आ रहे पी-नोट्स की भूमिका को लेकर रिजर्व बैंक अपनी चिंता काफी लंबे समय से जाहिर कर रहा है। रिजर्व बैंक की चिंता की वजह यह है कि पी-नोट्स के जरिए आनेवाले धन के स्रोत का पता नहीं होता और यह माना जाता है कि उसका इस्तेमाल आवारा पूंजी के सबसे बदनाम खिलाड़ी हेज फंड आदि करते है। आरोप यह भी हैं कि पी-नोट्स का इस्तेमाल कई बड़े देशी कारपोरेट समूह, राजनेता और अमीर लोग हवाला के जरिए विदेश गए अपने कालेधन को वापस देश में लाने के लिए भी कर रहे है।
 
रिजर्व बैंक की समझ है कि पी-नोट्स के जरिए शेयर बाजार में आनेवाली यह पूंजी अपने चरित्र में बहुत चंचल और अस्थिर होती है और इस कारण न सिर्फ शेयर बाजार के लिए बल्कि पूरी वित्तीय व्यवस्था की स्थिरता के लिए खतरनाक हो सकती है। रिजर्व बैंक के डर की वजह यह भी है कि एफआईआई के जरिए देश में आ रही कुल विदेशी पोर्टफोलियो पूंजी 1,93,398 करोड़ रुपये का लगभग 52 प्रतिशत पी-नोट्स के रूप में आ रहा है। नवम्बर,2003 तक कुल पोर्टफोलियो निवेश का 25 प्रतिशत पी-नोट्स के रूप में आ रहा था जो मात्र ढाई वर्षों में बढ़कर दुगुना हो गया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शेयर बाजार में पी-नोट्स की भूमिका किस हद तक निर्णायक हो गई है। यही कारण है कि रिजर्व बैंक लगातार पी-नोट्स पर पाबंदी लगाने की वकालत कर रहा है। अब तारापोर समिति ने भी रिजर्व बैंक की राय से सहमति जताई है। लेकिन इस में रिजर्व बैंक अकेला नहीं है। शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी ने भी पी-नोट्सको लेकर अपनी नापसंदगी कई बार जाहिर की है। 

लेकिन मनमोहन सिंह सरकार पूर्ण परिवर्तनीयता की जल्दी में होने के बावजूद पी-नोट्स पर पाबंदी लगाने के लिए तैयार नहीं है। शेयर बाजार और भारतीय अर्थनीति पर विदेशी आवारा पूंजी के बढ़ते दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोई भी सरकार उसे छेड़ने के लिए तैयार नहीं है। एक तरह से पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की तरह यूपीए भी नीतियों के मामले में विदेशी आवारा पूंजी के आगे समर्पण कर चुकी है। कारण बिल्कुल स्पष्ट है। सरकार को डर लगता है कि अगर विदेशी आवारा पूंजी को किसी भी तरह से नियंत्रित करने की कोशिश की गई तो शेयर बाजार में हड़कंप मच सकता है क्योंकि बाजार पूरी तरह से विदेशी संस्थागत निवेशकों के कब्जे में चला गया है। ऐसा कई बार हो भी चुका है। याद कीजिए जब पिछले दिनों एफआईआई पर टैक्स लगाने की खबर या अफवाह आई तो बाजार लुढ़कने लगा था। अंतत: खुद वित्त मंत्री को आगे आकर सफाई देनी पड़ी कि सरकार का एफआईआई पर टैक्स लगाने का कोई इरादा नहीं है।

कुछ इसी अंदाज में एक बार फिर वित्त मंत्रालय ने आनन-फानन में तारापोर समिति की पी-नोट्स पर पाबंदी लगाने की सिफारिश को खारिज कर दिया है। यही नहीं, वह समिति की इस सिफारिश को भी मानने के लिए तैयार नहीं दिख रही है कि मॉरीशस के साथ दोहरा कराधान उन्मूलन संधि की समीक्षा की जाए और एफआईआई को इस संधि का दुरूपयोग करने से रोका जाए। लेकिन इसके बावजूद वह रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। मनमोहन सिंह सरकार का यह रवैया न सिर्फ हैरत में डालनेवाला है बल्कि अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी भी है। सरकार का यह व्यवहार इसलिए हैरान करनेवाला है क्योंकि वह अपनी ही समिति द्वारा सुझाए गए सड़क मार्ग पर चलने के लिए तैयार नहीं है। क्या यह दुर्घटना को आमंत्रण नहीं है ?

आखिर मनमोहन सिंह सरकार रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के लिए इतनी बेचैन क्यों  है ? पूर्ण परिवर्तनीयता के पक्षधरों का यह कहना है कि इससे विदेशी निवेश आकर्षित होता है और अर्थव्यवस्था को गति मिलती है क्योंकि वह सीधे अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था से जुड़ जाती है। उनका विश्वास है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्चतर विकास की अवस्था में ले जाने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता जरूरी शर्त है। यहां इस तथ्य का उल्लेख करना जरूरी है कि रुपये को चालू खाते पर यानि व्यापारिक लेन-देन के लिए पहले ही पूर्ण परिवर्तनीय बनाया जा चुका है। अब मनमोहन सिंह सरकार इसे पूंजीगत खाते पर भी पूर्ण परिवर्तनीय बनाना चाहती है। पूंजीगत खाते पर पूर्ण परिवर्तनीयता का अर्थ यह होता है कि कोई भी भारतीय विदेशों में और कोई भी विदेशी भारत में रुपयेको डॉलर में और डॉलर को रुपयेमें बदलकर संपत्ति की खरीद-बिक्री कर सकता है। यानि रुपये को डॉलर में और डॉलर को रुपये में बदलने और उसे भारत से विदेश और विदेश से भारत लाने में कोई रोक-टोक नहीं होगी।

लेकिन पूर्ण परिवर्तनीयता के समर्थन में दिए जानेवाले तर्कों को हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता रहा है। पहली बात तो यह है कि ऐसा कोई निश्चित सबूत या उदाहरण नहीं है जिसके आधार पर यह दावा किया जा सके कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने या अर्थव्यवस्था को उच्चतर अवस्था में ले जाने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता जरूरी है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री दानी रॉद्रिक ने पूर्ण परिवर्तनीयता लागू करनेवाले ऐसे 23 देशों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण परिवर्तनीयता और अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। दूसरी बात यह है कि विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता कोई जरूरी शर्त नहीं है क्योंकि ऐसे कई देशों में भारी विदेशी निवेश हुआ है जहां पूर्ण परिवर्तनीयता नहीं है और कई ऐसे देशों में पूर्ण परिवर्तनीयता के बावजूद विदेशी निवेश न के बराबर हुआ है।

सच यह है कि पूर्ण परिवर्तनीयता के साथ लाभ की तुलना में नुकसान कहीं ज्यादा और घातक है। इसकी वजह यह है कि पूर्ण परिवर्तनीयता के कारण आवारा विदेशी पूंजी के किसी देश से बाहर निकलने में कोई बाधा नहीं रह जाती है। इसका फायदा उठाकर आवारा विदेशी पूंजी जिस तेजी से किसी देश में आती है, उससे कहीं अधिक तेजी से बाहर निकल जाती है। पूर्ण परिवर्तनीयता के साथ जुड़ा यह कोई काल्पनिक खतरा नहीं है बल्कि दुनिया के बहुतेरे देशों का पूर्ण परिवर्तनीयता के साथ ऐसा ही अनुभव है। यह अनुभव उनके लिए बहुत कड़वा साबित हुआ है। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। 1996-97 में एशियाई चीतों के नाम से जाने जानेवाले दक्षिण-पूर्व और पूर्वी एशिया के पांच देशों दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड और फिलिपींस को पूर्ण परिवर्तनीयता के कारण जिस मुद्रा संकट का सामना करना पड़ा, उसने इन अर्थव्यवस्थाओं को एक ही झटके में दशकों पीछे धकेल दिया।

लेकिन ऐसा नहीं है कि यह मुद्रा संकट केवल इन एशियाई देशों तक ही सीमित था। जल्दी ही वह संक्रामक बीमारी की तरह पहले रूस और फिर अर्जेंटीना तक पहुंच गया। दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस गई जिससे निकलने में उन्हें कई साल लग गए। इससे पहले यह कहानी 1994-95 में मेक्सिको में दोहराई जा चुकी है। मेक्सिको से पहले भी इस तरह के आर्थिक संकट दुनिया के कई देशों में आते रहे हैं। दानी रोद्रिक का तो यह मानना है कि अर्थव्यवस्था में बूम और गिरावट का चक्र एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई इंकार नहीं कर सकता है। लेकिन जब कोई अर्थव्यवस्था गिरावट का शिकार होती है तो आवारा विदेशी पूंजी उस संकट को और गहरा और घातक बना देती है क्योंकि वह संकट का अनुमान होते ही देश से पलायन कर जाती है।
 

रोद्रिक का यह भी कहना है कि पूर्ण परिवर्तनीयता को लागू करने के लिए जितने भी सुरक्षात्मक उपाय सुझाए जाते हैं, उन्हें लागू करने के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि विदेशी आवारा पूंजी के कारण पैदा होनेवाले आर्थिक और मौद्रिक संकट भविष्य में नहीं पैदा होंगे। उनका कहना है कि अब तक हर संकट के बाद जो कारण बताए गए और उनकी रोकथाम के लिए उपाय सुझाए गए, अगला संकट उससे बिल्कुल अलग कारण से आया है। इसलिए इन आर्थिक और मौद्रिक संकटों का अनुमान लगा पाना और उन्हें रोक पाना लगभग मुश्किल है। उनकी स्पष्ट राय है कि पूर्ण परिवर्तनीयता को लागू करने से जितने नुकसान हो सकते हैं, उन्हें देखते हुए उसे न लागू करना ही ज्यादा बेहतर विकल्प है।

इस तथ्य को पूर्ण परिवर्तनीयता के समर्थक भी स्वीकार करते हैं कि भारत दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के मौद्रिक संकट से सिर्फ इसलिए बाल-बाल बच निकला क्योंकि भारत में पूर्ण परिवर्तनीयता नहीं थी। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि पूर्ण परिवर्तनीयता के पक्षधरों की चली होती तो भारत में रूपया 1997-98 में ही पूर्ण परिवर्तनीय हो चुका होता। उस समय भी एसएस तारापोर की अध्यक्षता में ही रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के लिए सड़क मार्ग तैयार करने हेतु समिति गठित की गई थी। लेकिन दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संकट के कारण उसकी सिफारिशों को उस समय लागू नहीं किया गया और भारत उस संकट के संक्रामक प्रभाव से बच निकला। लेकिन उस संकट से सबक सीखने के बजाय मनमोहन सिंह सरकार वही गलती दोहराने की कोशिश कर रही है। पिछली बार देश संयोग से उस संकट से बच निकला लेकिन हर बार भाग्य साथ नहीं देगा, खासकर तब जब आप गलती को दोहराने पर आमादा हों।

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